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सुप्रसिद्ध योगी आनन्दघन जी के पास रस कुप्पी की शीशी लिए हुए एक संन्यासी आया और बोला - इस रस की एक बूँद हजारों लाखों मन लोहे को सोना बना सकती है। मैं आपके लिए लाया हूँ ।
आनन्दघन जी ने पूछा- क्या इसमें आत्मा है ?
आत्मा वात्मा की क्या बात करते हैं आप ? इसमें तो 'सिद्ध रस' है । आनन्दघन जी ने ओलिया लहज़े में ही कहा—- जिस में आत्मा नहीं वह चीज़ मेरे काम की नहीं ।
संन्यासी ने कहा- मेरे गुरु बहुत बड़े सिद्ध पुरुष हैं । उनके जैसा दूसरा कोई योगी आज नहीं मिलता। मैंने तुम्हारे लिए ही उनकी सेवा करके यह चीज प्राप्त की है। इसे लौटाओ मत, किसी भक्त का उद्धार कर देना ।
आनन्दघन जी ने शीशी अपने हाथ में ली, और जोर से एक पत्थर पर पटक दी । शीशी फूट गई, रस बह गया। और इधर संन्यासी की आँखें भी क्रोध से कुछ लाल हो गईं।
“यह जड़ रस दुल गया तो तुम क्रोध कर रहे हो ? परन्तु अपना आत्म - रस कहाँ दुल रहा है ? इसका भी कुछ विचार है ? आत्म-रस के आगे इस रस की कानी कोड़ी की भी कीमत नहीं ?”
" स्वर्ण सर्जक सिद्ध रस प्राप्त करने की शक्ति है आपके पास ? " " तुम्हें चाहिए क्या ? "
आनन्दघन जी ने पास पड़े हुए शिलाखण्ड पर पेशाब किया तो वह सोने का बन गया । संन्यासी का क्रोध हवा हो गया -- इतनी महान् शक्ति ! और इतनी सरलता ! न शक्ति का अभिमान है ! न प्रदर्शन ! ! संन्यासी आनन्दघन जी के चरणों में गिर पड़ा।
जिसने साधना में सिद्धि प्राप्त कर ली है, वह कभी प्रसिद्धि की कामना नहीं करता ! जिसने पूर्णता का आनन्द ले लिया, वह क्षुद्र प्रदर्शन से संसार को लुभाना नहीं चाहता।
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अमर डायरी
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