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मृत्यु भी एक कला है। आप आश्चर्य करेंगे कि मरने में भी क्या कला? हाँ, मरने में यदि कला नहीं रही तो पूरा जीवन ही व्यर्थ हो जाता है।
इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है, जिन्होंने जीवन-भर के कर्तृत्वों को मृत्यु के व्यामोह में फँसकर अपमानित कर दिया । और ऐसी भी घटनाएँ हमारे सामने हैं जब किसी महान् उद्देश्य के लिए प्राणोत्सर्ग करके, किसी व्यक्ति ने समूचे जीवन-भर के अंधकार को प्रकाश-दीप बना दिया। __ इसलिए मैं कहता हूँ--यदि पागल कुत्ते की तरह जीवन के भोग और स्वार्थों के पीछे दौड़ते-दौड़ते मरे तो क्या मरे ? ।
जीवन के पवित्र एवं सात्विक संघर्षों में जूझते हुए, अन्याय और अत्याचार का प्रतिरोध करते हुए स्व या जन-जीवन के कल्याण के लिए मरे, तो वह कलापूर्ण मरना है।
जीने की कला से भी महत्त्वपूर्ण है मरने की कला !
वह मृत्यु कलापूर्ण मृत्यु है, जिसके उज्ज्वल प्रकाश-पथ पर मरने वाला हँसता हुआ चला जाए, और पीछे वाले उसकी याद में रोते रह जाएँ।
किसी महान ध्येय की पूर्ति के लिए मरना मृत्यु-कला है। किसी शायर ने कहा है
कहा यह पतंगे ने शमां पै चढ़कर अजब मजा है, मरिए किसी के सर पै चढ़कर!
हृदय शुद्धि के काम में जो हार मान लेते हैं, उन्हें सचमुच मानवीय हृदय पर विश्वास नहीं है।
हम राजस्थान के उस प्रदेश में एक बार गए थे जहाँ लोगों के मन में भूत-प्रेत का विश्वास बहुत है। लोग कहते थे कि अन्धकाराच्छन्न रात को रास्ते में भूत घूमा करते हैं, यात्री को मार्ग के अगल-बगल में तरह-तरह के भय और प्रलोभन
अमर डायरी
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