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सन् १९४० में जब नेता जी जेल से बाहर निकले तो कुछ भी सहयोग नहीं पा रहे थे, मन एक दम निराशा से भर गया। अपने आप को मिटा देने के लिए उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। एक दिन उनका एक अंग्रेज मित्र, जो जेलर था, नेताजी से बोला-“मिस्टर बोस ! एक मरे हुए सिंह की अपेक्षा, एक जीवित गधे की कीमत ज्यादा है, यह सीधा सादा सत्य तुम कैसे भूल जाते हो?"
बस ! 'नेताजी' के सिंहत्व को जगा दिया उसने और वह सिंह दहाड़ उठा। जीवन की महत्ता की इस महिमा पर गम्भीरता से विचार करो।
बाँट कर खाना किसने सिखाया? भय और प्रेम ने। लूट कर खाना किसने सिखाया? भूख और बेसब्री ने। बेईमानी करना किसने सिखाया? आलस्य और फिजूलखर्ची ने। कमाकर खाना किसने सिखाया? अहंकार और आत्म-सम्मान ने।
सम्यक्त्वी आत्मा संसार में रहता है, पर संसार को अपना नहीं समझता ! परिवार, भोग, सुख, दुःख सबका अनुभव करते हुए भी अपने को उन सबसे अलग समझता है । सेठ का मुनीम, लाखों-करोड़ों का हिसाब रखता है, लेन-देन करता है; किन्तु उस धन को अपना धन नहीं समझता। जिस दिन उस धन को अपना समझा, तो समझ लो जेल के दरवाजे दूर नहीं हैं, हथकड़ियाँ पड़ने को
आत्मा जब पर को अपना समझ लेता है, तो संसार की कैद में फँस जाता है। ममत्व की हथकड़ियों में बँध जाता है।
मौन का क्या अर्थ है ? नहीं बोलना ! सामान्य मनुष्य यही अर्थ समझते हैं। पर यह अर्थ गलत तो नहीं, अधूरा है । मौन चार प्रकार का होता है । चारों प्रकारों का स्वरूप समझ लेने से मौन का सही और पूरा अर्थ समझ में आ जाएगा।
१. वाणी का मौन—चुप रहना, सावध वचन न बोलना।। 26
अमर डायरी
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