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वह हँस पड़ा । मैंने कहा— जैसा चश्मा ऊपर वाले के पास है, याद रखो, वही चश्मा नीचे वाले के पास भी है ।
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एक श्रावक है, सुशिक्षित है। पूछने लगा — जीवन में किस महापुरुष की पूजा की जाय ?
मैंने उसे एक कहानी सुनाई - एक व्यक्ति ने 'लैला-मजनूँ' का प्रेम-काव्य पढ़ा। 'लैला' चरित्र उसे इतना प्रिय व रुचिकर लगा कि वह उस पर मुग्ध हो गया। उसने लैला की एक बड़ी तस्वीर अपने कमरे में टांग ली और प्रतिदिन उसकी पूजा करने लगा ! एक दिन उसका कोई मित्र आया, उसने यह सब नाटक देखा तो उसे समझाया- भाई, यदि तुम 'लैला' को प्यार करने वाले मजनूँ बनना चाहते हो, तो उसकी पूजा करने से कुछ नहीं होगा । मजनूँ के समान अपने प्रेम में तीव्रता जगाओ। एक निष्ठा पैदा करो। एक दिन अवश्य ही कोई 'लैला' तुम्हारे जीवन में भी उपस्थित हो जाएगी ।
महापुरुष, बनने के लिए महापुरुष की पूजा करने की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी कि महापुरुष के चरित्र को, उसके गुणों को जीवन में प्रकट करने की । जीवन में अपने आराध्य महापुरुष के समान ही उदात्त ध्येय, और कर्त्तव्यनिष्ठा जगाने की आवश्यकता है ।
याद रखो, हमारी संस्कृति व्यक्ति-पूजक नहीं, गुण-पूजक है।
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जो सुख-दुःख को जानता है, किन्तु उसके स्पर्श से मुक्त है, वह सिद्ध है। जो सुख-दुःख को जानता है, उसका स्पर्श भी करता है, परन्तु उसकी वासना में नहीं फँसता, वह संत है ।
जो सुख-दुःख को जानता है, स्पर्श भी करता है, और उसकी भावना में लीन हो जाता है, वह संसारी प्राणी है
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जो सुख-दुःख को जानता भी नहीं, उसका स्पर्श भी नहीं करता, वह जड़ है ।
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अमर डायरी
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