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संशोधन चाहते हैं और कुछ निर्माण, कुछ क्रान्ति चाहते हैं और कुछ विकास । जीवन में दोनों ही आवश्यक हैं, किन्तु दोनों की ही कुछ सीमाएँ हैं, जिन्हें समझ लेना जरूरी है। ___ एक कपड़ा है, उसका एक किनारा फट गया तो उसे जोड़ लेते हैं, वह मैला हो गया तो उसे धो लेते हैं, इस तरह उसका सुधार कर लिया, किन्तु वह फटते-फटते इतना फट गया कि अब कपड़ा नहीं रहकर चीथड़ा बन गया तो फिर उसको फेंककर नया कपड़ा ही लेना पड़ेगा, धोते-धोते वह इतना गल गया कि अब धोते-निचोड़ते ही चर्-चर् करता है तो उसको छोड़ना ही होगा। यदि उस फटे-पुराने चिथड़े को ही आप गले में डालकर फिरेंगे तो दुनिया आपको बुद्धिमान नहीं कहेगी, मूर्ख और दरिद्र बताएगी। __एक पुराना मकान है, कहीं से टूट-फूट हुई तो सीमेंट लगा दिया, ईंट-पत्थर लगाकर ठीक कर दिया। कुछ समय तक तो आप सुधार करते रहें, लेकिन जब मकान इस हालत में पहुँच गया कि वह किसी भी दिन गिरकर खण्डहर बन सकता है, और दस-बीस प्राणियों की जिन्दगी ले सकता है तो आपकी समझदारी उसी में होती है कि उसे गिराकर नया मकान बनवा लिया जाए।
जब नया कपड़ा खरीदना पड़ता है, नया निर्माण करना पड़ता है तब नया वातावरण, नयी परिस्थितियाँ और नयी रूपरेखा सामने आती है, उसे हम उद्धार कहते हैं।
यही बात परिवार, समाज, राष्ट्र और धर्म की है, जब तक सुधार सम्भव हआ---करते रहे, लेकिन जब स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि इस व्यवस्था और परम्परा के महल को खंडहर होने से बचाने के लिए उसे गिराकर नया महल खड़ा करने में ही बुद्धिमानी है, तब हम उसे उद्धार, निर्माण और क्रान्ति कहते हैं। सुधार और उद्धार की इन सीमाओं को समझने में हमने विवेक से काम नहीं लिया तो सम्भव है, आने वाले जमाने के साथ हमें टकराना पड़ेगा। जीवनी-शक्ति
मनुष्य औषधि आदि प्रयोगों द्वारा अपना शरीर-बल चाहे जितना बढ़ाले, किन्तु जब उसमें मनोबल नहीं होता, प्राण-शक्ति नहीं होती, ओजस नहीं होता,
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