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मैं मानता हूँ कि व्यक्तिगत 'अहं' के विलय का यह महत्वपूर्ण सन्देश जैन धर्म का ही नहीं, किन्तु धर्म मात्र का सन्देश है । तपस्या का उद्देश्य
'तपस्या के लिए तपस्या' और 'तप के लिए तप' यह जैन धर्म की धारणा नहीं है। जैन साधना का विवेक इसमें है कि तपस्या -- एक साधन है और उसका प्रयोग विकारों को शान्त करने के लिए किया जाता है। अगर तपस्या से अभिमान, क्रोध और लोभ को शान्त नहीं किया जा रहा है तो उस व्यर्थ के देह-दण्ड से क्या लाभ? तपस्या से यदि क्रोध की अग्नि और अधिक भड़कती है, अभिमान की मात्रा तेज होती है, वासना का वेग प्रबल होता है तो उस स्थिति में जैन दर्शन तपस्या की अपेक्षा पारने को अधिक महत्व देता है । भगवान महावीर ने छह मास की तपस्या की, और जब पारने की आवश्यकता हुई तो वह भी किया । जैन धर्म तपस्या और पारना (खाना) के पीछे गुमराह होने वाले साधकों को प्रकाश दिखाता है कि-साधना के क्षेत्र में आए हो तो विवेक को जगाओ ! मन के विकारों को दूर करने के लिए जब जिस क्रिया की आवश्यकता हो वही क्रिया करो। इसी लिए जैन धर्म ने तपस्या को सिर्फ 'निराहार' न मानकर उसको बारह प्रकारों में विभक्त कर दिया है । जब जिसकी आवश्यकता हो, उसी का अनुष्ठान करो । विकारों का सर्प
जैन आचार्यों ने शरीर के साथ शत्रुता बर्तने की बात कभी नहीं कही है । वहाँ तो केवल विकारों के साथ लड़ने की बात कही गई है। मैं मानता हूँ कभी-कभी साधनों के बीच यह शरीर धोखा दे जाता है। यह शरीर तो सिर्फ सर्प के बिल के समान है, जिसकी गहराई में विकारों का सर्प शरण लेता है । साँप को मारने के लिए बाँबी बिल पर सोटे बरसाने से कोई फायदा नहीं है। यह शरीर तो अनेक बार काटा गया है। जलाया गया है, और मिट्टी बना है। मगर जब तक
अमर डायरी
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