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धर्म का प्रवेश-द्वार ___ अगर संसार में कोई ऐसा धर्म है, जो व्यक्ति के किसी भी प्रकार के अहं को स्वीकार करता हो और उसे प्रश्रय देता हो तो उस धर्म के सम्बन्ध में मेरा विनम्र मत है कि वह धर्म, धर्म की मर्यादा में आने योग्य नहीं है । 'अहं' का विलय करने से ही धर्म के द्वार पर प्रवेश पाया जा सकता है । जाति, धन, सत्ता आदि का 'अहं' धर्म की चौखट पर पैर भी नहीं रख सकता। इस सम्बन्ध में जैन धर्म ने एक महत्वपूर्ण सन्देश दिया है
सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो
न दीसइ जाई विसेस कोई। विश्व में तपस्या और साधना का मूल्य आँका जाता है, जाति का कुछ भी मूल्य नहीं है। जैन धर्म के द्वार पर यह नहीं पूछा जाता कि तुम सिंहासन पर बैठने वाले हो, या सड़क पर झाडू देने वाले। उसके द्वार पर बड़े-बड़े राजकुमार भी आए, तो हरिकेशी जैसे अंत्यज भी । उसके तपोवन में इन्द्रभूति गौतम जैसे अग्निहोत्री आए तो अर्जुन माली जैसे शूद्र जाति के साधक भी; और सभी ने साधना की लौ लगाई । उसके द्वार में प्रवेश पाने वाले से सिर्फ एक ही प्रश्न पूछा जाता है-भद्र ! क्या तुम अपने जीवन का निर्माण करना चाहते हो? अपने अन्तर में दबी पड़ी अनन्त शक्तियों को चमकाना चाहते हो? यदि हाँ, तो तुम्हारे लिए जैन धर्म-साधना का मन्दिर खुला है, तुम्हें कोई भी शक्ति निषेध नहीं कर सकती ! __ जैन धर्म के एक आचार्य ने इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही भावपूर्ण बात कही है
अन्नोन देश जाया, अन्नेनागार बुड़िढयसरीरा।
जे जिण-धम्म पव्वन्ना सव्वे ते बन्धवा भणिया ।। चाहे किसी भी देश में जन्मा हो, किसी भी धरती की गोद में खेला हो-जो जैन धर्म की साधना में प्रव्रजित हो गया-वह सब भाई है, सब समान है। 136
अमर डायरी
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