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विजेता इस गूढार्थ को नहीं समझ सका, उसने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा-~-इसका मतलब? पराजित बादशाह ने व्यंग्य की भाषा में उत्तर दिया--इसका अर्थ स्पष्ट है---"जिसका जूता, उसका हीरा ।” एक दिन मेरे पूर्वजों ने क्षत्रिय राजाओं के हाथ से अपने जूते के बल पर इसे छीना था। आज मेरे जूते से तुम्हारे जूते में अधिक ताकत है, इसलिए यह हीरा तुम्हारे हाथ में है।
और जब तुम्हारे जूते से भी अधिक ताकतवर कोई दूसरा जूता आएगा तो उस समय यह हीरा उसके हाथ में होगा।"
बादशाह इस करारे व्यंग्य से शर्मिन्दा हो गया। स्वार्थ का विस्तार : परमार्थ एक महान् आचार्य ने कहा है
__ अहंता-ममता-त्यागः, कर्तु-यदि न शक्यते।
अहंता-ममता-भाव: सर्वत्रैव विधीयताम्॥ पहली बात है-अपने अहंकार और ममत्त्व का त्याग कर दो, मैं और मेरेपन को समाप्त कर दो। अब यदि अहं इतना उर्जस्वित है, ममकार इतना गहरा है कि उसे नहीं छोड़ सकते, तो फिर ऐसा करो कि उस अहं को, उस ममत्त्व को विस्तृत बना दो। जो अहं अपने “मैं” के घेरे में बन्द है, जो ममकार “मेरा" की चाहरदीवारी में घुट रहा है, उसे परिवार, गाँव, समाज, राष्ट्र और विश्व में फैला दो । जो तुम्हारा दोष था, वह गुण बन जाएगा। ___ लाल या नीला रंग जब गाढ़ा होता है, पिंडीभूत होता है, तो वह काली झाँई
देने लगता है, आँखों को चुंधियाने लगता है, लेकिन जब उसे फैला दिया जाता है, तो वह हलका होकर बड़ा ही सुहावना दीखने लगता है।
यही बात. स्वार्थ के सम्बन्ध में है। यदि अपने स्वार्थों का त्याग नहीं कर सकते, तो फिर उसमें सबका स्वार्थ देखो। अपनी भलाई की बात ही नहीं, सबकी भलाई की बात सोचो। विश्वात्मा के साथ ऐक्यानुभूति करो। 'अपने' क्षुद्र घेरे से निकाल कर उसे विश्व के रंगमंच पर फैला दो, अहंकार और ममकार का यह फैलाव उसके जहर को मिटाकर अमृत बना देता है, स्वार्थ का यह विस्तार ही परमार्थ बन जाता है।
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