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________________ ६५ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन धारण कर एक महीने तक प्रायोपगमन संन्यास धारण करने के बाद अन्त में शान्त परिणामों से शरीर छोड़कर अहमिन्द्र पद प्राप्त करते हैं। महा पुराण के अनुसार इसमें मुनिदीक्षा सम्पन्न होती है और सांसारिक एवं कर्मबन्धन को तोड़ने का प्रयास किया जाता है। उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन पुराणकारों ने यद्यपि पारम्परिक पुराणों एवं धर्मों की तरह आश्रम-व्यवस्था का श्रौत-स्मार्तपरम्परा सम्मत विवेचन नहीं किया है, तथापि प्रकारान्तर से चारों आश्रम का वर्णन किया है । जैन पुराणकारों का उक्त विवेचन विशेषतः इस बात की ओर भी इंगित करता है कि श्रौत-स्मार्त परम्परा में प्रत्येक आश्रम के लिए आयु का जो सीमांकन किया गया है, जैन पुराणकारों ने अनिवार्यतः आवश्यक नहीं माना है। विशेषतः एक बात और ध्यान देने की है कि गृहस्थाश्रम का वर्णन करते हुए जैन पुराणकारों ने विवाह और संतानोत्पत्ति का स्पष्टतः उल्लेख किया है। पुराणकारों की इस दृष्टि का और स्पष्ट उदाहरण आगे जाकर सोमदेव के 'उपासकाध्ययन' तथा आशाधर के 'सागार धर्मामृत' में प्राप्त होता है । भारतीय सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन एवं अनुसंधान करते समय जैनों की इस महत्त्वपूर्ण सामग्री का उपयोग किया जाना चाहिए । १. महा ६३।३३६-३३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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