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________________ ४४ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन 'क्षत्रिय' शब्द के द्योतनार्थ हुआ है । 'अयोनिज' शब्द को समीक्षा का विषय बनाया जा सकता है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है, ऐसी जाति जिसकी उत्पत्ति मानवीय योनि से नहीं हुई है। सम्भवतः यह शब्द उस अग्निकुल के आख्यान को द्योतित करता है, जिसे राजपूतों की उत्पत्ति का कारण माना गया है । जैन पुराण स्पष्टतया उक्त आख्यान का उल्लेख नहीं करते हैं, प्रत्युत इसे प्रकारान्तर से प्रस्तुत करते हैं । उदाहरणार्थ, महा पुराण में वर्णित है कि क्षत्रियों की उत्पत्ति जिनेन्द्र देव से हुई है और इसी से वे 'अयोनिज' कहलाते हैं।' प्राचीन क्षत्रिय जाति से पूर्वमध्यकालीन राजपूत जाति का रक्त-सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है अथवा नहीं ? इस प्रश्न को कतिपय विद्वानों ने हाल ही में सुलझाने का प्रयास किया है । जेड० जी० एम० डैरेट ने राजपूतों को प्राचीन क्षत्रिय जाति से पृथक् करने का प्रयत्न किया है। किन्तु डॉ० ब्रजनाथ सिंह यादव इस मत की श्रद्धेयता स्वीकार नहीं करते हैं । । जैन पुराणों में क्षत्रिय जाति के लिए जो कर्त्तव्य विहित किये गये हैं, उनमें दो तत्त्वों का समन्वय दृष्टिगत होता है। प्रथमतः उनमें वही क्षत्रियोचित कर्त्तव्य वर्णित हैं, जिनका उल्लेख प्राचीन क्षत्रियों के संदर्भ में अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध है। द्वितीय, इन क्षत्रियों के कर्तव्य गौरव में शौर्य और पराक्रम का बार-बार उल्लेख प्राप्त होता है, जिसे राजपूतों की 'सिवैल्री' कहते हैं। अतएव ऐसी स्थिति में सामान्य निष्कर्ष यही निकलता है कि राजपूत पुराने क्षत्रियों से पृथक् नहीं थे। जैन पुराणों के अनुसार विनाश (क्षत्) से रक्षा (त्राण) करने से क्षत्रिय संज्ञा प्राप्त होती है।' उक्त पुराण में क्षत्रिय की आजीविका शस्त्र धारण करना वर्णित है। पद्म पुराण में विपन्न व्यक्ति को क्षति न पहुँचाना, सोते हुए, बन्धन में पड़े हुए, विनम्र, भय-त्रस्त तथा दाँतों में तृण दबाये हुए योद्धा को न मारना क्षत्रिय का परम कर्तव्य निरूपित १. दिव्यमूर्तरुपुत्पद्म जिनादुत्पादयज्जिनान् । रत्नत्रयं तु तद्योनिनुपास्तस्मादयोनिजाः ॥ महा ४२११५ २. डैरेट-जे० इ० एस० एच० ओ०, भाग ७, १६६४, पृ० ७४ ३. यादव-वही, पृ० ३२ ४. क्षत्रात् त्रायत इत्यासीत् क्षत्त्रोऽयं भरतेश्वरः । महा ४४।३०; पद्म ३५६ ५. क्षत्रिया : शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाभवन् । महा १६।१८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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