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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
पशुबध करने वाले द्विजों को ब्राह्मण कहलाने के अधिकार से वंचित किया है। पद्म पुराण ने उन द्विजों को ही ब्राह्मण की मान्यता प्रदान की है, जो महाव्रत रूपी चोटी, क्षमा रूपी यज्ञोपवीत, धर्म रूपी यज्ञ में हवन करते हैं एवं मुक्ति के लिए सिद्धि करने में तत्पर तथा शान्त हैं ।२
उक्त अनुच्छेद में वर्णित ब्राह्मणों के अतिरिक्त जैन आचार्यों ने ऐसे ब्राह्मणों का उल्लेख किया है जो वैदिक परम्परा के अनुयायी थे और जिनके कर्त्तव्य आदि का वर्णन जैन ग्रन्थों में प्राप्य होता है । उदाहरणार्थ, महा पुराण में ब्राह्मणों के अध्ययन, अध्यापन, दान तथा याज्ञिक क्रियाओं का भी वर्णन उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त अन्य जैन ग्रन्थों में भी ब्राह्मणार्थ निर्धारित उन चौदह विद्याओं का उल्लेख मिलता है, जिनका वर्णन पारम्परिक धर्मशास्त्र तथा पुराण में उपलब्ध है। ये चौदह विद्याएँ इस प्रकार हैं : षटांग (शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष एवं कल्प ), चार वेद ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद ), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र ।
उक्त अनुच्छेदों में ब्राह्मण की स्थिति तथा कर्तव्यों के प्रसंग में जितने तत्त्वों का उल्लेख किया गया है, वे तत्कालीन वस्तुस्थिति के परिचायक अवश्य हैं, किन्तु हरिवंश पुराण का एक स्थल पुनर्विचार का विषय अवश्य बन जाता है, जहाँ यह वर्णित है कि प्रवरक नामक ब्राह्मण कृषक था तथा स्वतः हल चलाकर अपना जीविकोपार्जन करता था। प्राचीन भारतीय समाज के जिज्ञासु विद्वानों ने प्रस्तुत प्रश्न को गम्भीरता से ग्रहण किया है तथा जिन विशेष साक्ष्यों को उन्होंने प्रस्तावित किया है, वे हैं-मनुस्मृति, पराशरस्मृति एवं पराशरस्मृति के टीकाकार माधवाचार्य । मनुस्मृति के अनुसार कृषि-वृत्ति ब्राह्मण के लिए अपेक्षित नहीं है क्योंकि कर्षण कार्य से भूमिगत कीटाणुओं की हत्या होती है, किन्तु मनुस्मृतिकार ने यह भी स्पष्ट किया
१. महा ३६।१३३ २. पद्म १०६८१-८२ ३. महा १६।२४६ ४. जगदीश चन्द्र जैन-वही, पृ० २२७ ५. आसीत्प्रवरको नाम्ना ग्रामेऽत्रैव कृषीबलः ।
विप्रः प्रकृष्य स क्षेत्रं महावर्षानिलादितः ।। हरिवंश ४३।११६
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