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________________ धार्मिक व्यवस्था ३६५ (vi) दान का महत्त्व तथा फल : दान की महत्ता को महा पुराण में प्रदर्शित करते हुए वर्णित है कि ज्ञान से बढ़कर अन्य दान नहीं है । ज्ञान शास्त्र से प्राप्त होता है। अतः शास्त्र ही प्रधान है। यही कारण है कि शास्त्र-दान को सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है । इसी से मोक्ष की उपलब्धि होती है । आहार-दान में थोड़ा आरम्भजन्य पाप रहता है। इसलिए अभय-दान आहार-दान से श्रेष्ठ है। इन दानों का क्रम क्रमशः शास्त्र-दान, अभय-दान तथा आहार-दान है। महा पुराण के अनुसार उक्त तीनों महादानों के करने वाले परमपद (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं । २ पद्म पुराण में दान के फल को निरूपित करते हुए कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् को उद्देश्य कर दिये गये दान से मनुष्य को स्वर्ग तथा मनुष्य लोक सम्बन्धी उत्तमोत्तम भोग की प्राप्ति होती है। इससे उत्कृष्ट भोग की प्राप्ति होती है । यही दान गुणों का पात्र है। पद्म पुराण में दान से निम्नांकित फल की प्राप्ति वर्णित है-उपद्रव से मुक्ति, अपार सुखों की प्राप्ति, उत्तम गति', भोगप्राप्ति आदि । . व्रतोपवास : प्राचीन भारतीय परम्परा एवं आस्था के अनुसार व्रतोपवास द्वारा आत्म-शुद्धि होने के साथ ही पाप-क्षय भी होता है। इस प्रकार मानव जीवन में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। धार्मिक ग्रन्थों में इसकी महत्ता को प्रदर्शित किया गया है। जैन पुराणों ने इस पर अधिक बल दिया है। इन पुराणों में अधोलिखित विवरण उपलब्ध है। पद्म पुराण में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होने को व्रत संज्ञा प्रदत्त है। हरिवंश पुराण में चतुर्थक, षष्ठ एवं अष्टम् शब्द उपवास के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसका तात्पर्य यह है कि एक दिन के उपवास के लिए चतुर्थक, द्विदिवसीय १. महा ५६७३-७७ २. वही ५६७६ ३. पद्म १४१६४-६५ ४. वही ३२।१५५ ५. वही ३२।१५६ ६. वही १४१४२ ७. वही ३२।१५४ हिंसातोऽलीकतः स्तेयान्मैथुनाद् द्रव्य संगमात् । विरतिव्रतमुदिष्टं विधेयं तस्य धारणम् ॥ पद्म १४।१०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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