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धार्मिक व्यवस्था
विषय में पर्याप्त प्रकाश नहीं पड़ता। हरिवंश पुराण में मुनियों के सात प्रकार के संघ का उल्लेख उपलब्ध होता है, जो कि नाना प्रकार के गुणों से परिपूर्ण थे।' पद्म पुराण में चार प्रकार के संघ का संदर्भ द्रष्टव्य है ।२ मुनि संघ की निन्दा करने पर मृत्यु तथा स्तुति करने पर दीर्घायु होने का वर्णन पद्म पुराण में हुआ है ।'
[vi] मुनि-दीक्षा : मुनि संघ में प्रवेश के पूर्व कतिपय संस्कार प्रतिपादित करने पड़ते थे। पद्म पुराण में कथित है कि दीक्षा लेने के पूर्व माता-पिता तथा बन्धुजनों से आज्ञा लेनी पड़ती थी और इसके उपरान्त 'नमः सिद्धेभ्यः'-सिद्धों को नमस्कार-ऐसा कहकर दीक्षा ग्रहण करते थे। जैन पुराणों का कथन है कि तदनन्तर वे पञ्चमुष्ठियों से शिर के वालों का लुंचन करते थे। पद्म पुराण के अनुसार दीक्षा के लिए कोई आयु निश्चित नहीं थी।"
vii] पतित (भ्रष्ट) मुनि : उस समय सामान्यतः मुनिगण मुनि-धर्म का पालन करते थे, परन्तु भ्रष्ट मुनियों का भी उल्लेख उपलब्ध होता है जो कि वेश्याओं द्वारा भ्रष्ट होते थे । भ्रष्ट मुनियों को मुनिपद का परित्याग करना पड़ता था। पक्ष, महीना आदि निश्चित समय तक अपराधी मुनि को संघ से दूर कर देते थे, इसे परिहार-प्रायश्चित कहते हैं। इसके बाद दोष शान्त होने पर पुनः नवीन दीक्षा देना उपस्थापना नामक प्रायश्चित है । जिसे उपासना दण्ड दिया गया था, उसे संघ के सब मुनियों को नमस्कार करना पड़ता था, क्योंकि वे नवीन दीक्षित होते थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय भी मुनि भ्रष्ट होते थे। उन्हें सुशासित करने के लिए कठोर नियम की व्यवस्था थी। जिसमें वे संयमित होते थे। मुनि ही समाज के आदर्श थे।
१. सङ्कः परिषदि श्रीमान बभौ सप्तविधस्तदा ।
विचित्रगुणपूर्णानामृषीणां वृषभेशिनः ॥ हरिवंश १२।७१ २. पद्म ६७।६७, ३६६५-६७ ३. पद्म ३२८२, ५२८६, ५।२६३ ४. इत्मदीर्य जगहे मुनिस्थिति पञ्चमुष्टिभिरपास्य मूर्धजान् । हरिवंश ६३।७४
चकारासी परित्यागं केशानां पञ्चमुष्टिभिः ।। पद्म ३।२८३ ५. पद्म ४१।११८ ६. हरिवंश २७।१०१; तुलनीय-सूत्रकृतांगटीका ४।१-२; निशीथभाष्य ११५५६
७. पक्षमासादिभेदेन दूरतः परिवर्जनम् ।
परिहारः पुनर्दीक्षा स्यादुपस्थापना पुनः ।। हरिवंश ६४।३७
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