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साक्ष्य - अनुशीलन
के 'तिलोय पणत्ति' ग्रन्थ में प्राप्य है । चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण तथा नौ बलभद्र के जीवन के प्रमुख तथ्य भी इसी में संग्रहीत हैं । इन्हीं के आधार पर विभिन्न पुराणकारों ने अपनी लेखनी उठायी और छोटे-बड़े अनेक पुराणों का प्रणयन किया। स्वामी समन्तभद्र कृत स्वयंभू स्तोत्र में चौबीस तीर्थंकरों के जीवन चरित्र के अनेक प्रसंग उल्लिखित हैं । पुराणकारों के लिए वे भी आधार स्रोत बने । २
जैन पुराणों के उद्भव में तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । इन पर अत्यन्त संक्षेप में दृष्टिपात किया जा सकता है । इन पुराणों का समय गुप्तोत्तर काल है । उस समय देश संक्रमण युग से गुजर रहा था । सार्वभौम सत्ता का अभाव था । जैन-धर्म देश के विभिन्न भागों में प्रसारित था । बहुत से राजा जैन - मतावलम्बी थे, जिससे जैन-धर्म को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त था ।
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तत्कालीन भारतीय समाज जाति प्रथा में जकड़ता जा रहा था और धार्मिक रीति-रिवाज के बंधन जटिल होते जा रहे थे। समाज के शिक्षित एवं अशिक्षित सभी लोग तंत्र-मंत्र, जादू टोना-टोटका, शकुन - मुहूर्त आदि अंधविश्वासों से ग्रसित थे । सामाजिक वैमनस्य एवं भेदभाव का अन्तराल विशाल होता जा रहा था ।
गुप्तयुग संस्कृत साहित्य का भारत, पुराण तथा धर्मशास्त्रों को भारवि, माघ, भवभूति, बाण आदि कर रहे थे ।
स्वर्णयुग मान्य है । इस समय रामायण, महाअन्तिम रूप दिया जा रहा था । कालिदास, रीतिबद्ध शैली से संस्कृत साहित्य को समृद्ध
गुप्तयुग ब्राह्मण धर्म का पुनर्जागरण काल था । ब्राह्मण धर्म में नाना अवतारों की अवधारणा, उनकी पूजा तथा भक्ति की प्रधानता हो गयी थी । के स्थान पर पुराण का महत्त्व बढ़ गया था । रामायण एवं महाभारत लोकप्रिय
इस समय वेदों
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१. महा, प्रस्तावना, पृ० ७
२. स्वयंभू स्तोत्र, सरसावा, ५ सं० १६
३. गुलाब चन्द्र चौधरी - जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, वाराणसी, १६७३, पृ० ८-१८
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