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________________ धार्मिक व्यवस्था महा पुराण में मुक्त जीव का जो सुख है, वह अतुल्य अन्तराय से रहित एवं आत्यन्तिक (अन्तातीत) होता है । जो आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त हैं, उन्हें मुक्त जीव संज्ञा से सम्बोधित करते हैं । २ पद्म पुराण में विवेचित है कि साधारण मनुष्यों की अपेक्षा राजा, राजाओं की अपेक्षा चक्रवर्ती, चक्रवर्तियों की अपेक्षा व्यन्तरदेव, व्यन्तरदेवों की अपेक्षा ज्योतिषदेव, ज्योतिषदेवों की अपेक्षा कल्याणवासी देव, कल्याणवासी देवों की अपेक्षा ग्रैवेयकवासी, ग्रैवेयकवासियों की अपेक्षा अनुत्तरवासी, अनुत्तरवासियों की अपेक्षा अनन्तानन्त गुणित सुखी सिद्ध जीव हैं। सिद्ध जीवों के सुख से उत्कृष्ट दूसरा सुख नहीं है।' (iii) संसारी जीव की गतियाँ : जैन पुराणों के अनुसार प्राणी कर्मोदय के वशीभूत होकर स्थावर तथा बसकायों अथवा नरकादि चतुर्गतियों में क्लेश भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं। इन प्राणियों का चौरासी लाख कुयोनियों तथा अनेक कुलकोटियों में निरन्तर भ्रमण करने का उल्लेख हरिवंश पुराण में उपलब्ध है ।" इसी लिए अपने कर्मों के अनुसार धनी, निर्धन, कोढ़ी आदि होते हैं । यह जीव अपने-अपने योग्य स्थानों में एक सौ बीस कार्य प्रकृतियों से सदा बँधा रहता है। इन्हीं प्रकृतियों के कारण यह जीव गति आदि पर्यायों में बार-बार घूमता रहता है। किन्तु मुक्त होने के उपरान्त उसे पुनः इन योनियों में न परिभ्रमण करना पड़ता है और न ही पुनः कर्मों से किसी भी स्थिति में बद्ध होना पड़ता है।। [ब] अजीव द्रव्य : जिन द्रव्यों में चैतन्य का अभाव है उन्हें अजीव द्रव्य की अभिधा प्रदान किया गया है । इसके पाँच प्रकार हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल । १. मुक्तस्यातुलमत्यन्तरायमात्यन्तिकं सुखम् । महा ६७।१०। २. संसारी मुक्त इत्यात्मा प्राहुस्तैर्मुक्ती मुक्त इष्यते । महा ६७।५ ३. पद्म १०५।१८-१६०; तुलनीय-उत्तराध्ययन ३६।५६, ३६।६५ ४. हरिवंश १८१५३; पद्म ५॥३३०-३३२ ५. कुयोन्यशीतिलक्षासु चतुरभ्यधिकास्वमी। अनेककुलकोटीषु बभ्रम्यन्ते तनूभृतः ॥ हरिवंश १८५६ ६. पद्म १४१३६-४१ ७. स विशतिशतेनार्यकर्मणां स्वोचिते पदे । जन्तुस्तैर्धम्यते भूयो भूयो गत्यादिपर्ययः ।। महा ६२।३११-३१२ ८, अजीवलक्षणं तत्त्वं पञ्चव प्रपञ्च्यते । धर्माधर्मावथाकाशं कालः पुद्गल इत्यपि ॥ महा २४।१३२; पद्म २।१५७; हरिवंश ५८१५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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