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आर्थिक व्यवस्था
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इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि पूर्व मध्यकालीन आर्थिक परिवेश में कुछेक ऐसे तत्त्वों का आविभाव हुआ था, जिनके कारण भारतीय व्यापार पर आघात पहुँचा । बोधिसत्त्वावदान, कल्पलता, कथासरित्सागर, मध्ययुगीन पुरातन प्रबन्ध संग्रह, नैनसी का ख्यात, राजतरंगिणी, वस्तुपाल चरित, प्रबन्ध कोश तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र ग्रन्थों के सम्बन्धित स्थलों के आधार पर डॉ० दशरथ शर्मा एवं डॉ० ब्रजनाथ सिंह यादव सदृश विद्वानों ने यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि सामुद्रिक लुटेरों के आतंक के कारण विदेशों के साथ भारतीय व्यापार निर्वाध रूप में नहीं चल सकता था। इस मत का समर्थन हमारे आलोचित पुराण से पूर्णतः हो जाता है। उक्त अनुच्छेद में हम वणित कर चुके हैं कि दस्युओं का उल्लेख हरिवंश पुराण में हुआ है । इनकी प्रवृत्ति विध्वंसकारी थी। ये व्यापारियों के कारवाँ के प्रतीक्षा में हमेशा रहते थे और अवसर पाते ही उन्हें लूट लेते थे ।
किन्तु हमारे पुराणों के अन्य उल्लेखों से यह भी स्पष्ट होता है इस विषम परिस्थिति में भी विदेशों के साथ व्यापार सम्पर्क किया जाना एक अनुसरणीय आदर्श माना जाता था। यही कारण था कि उक्त अनुच्छेद में चर्चित पद्म पुराण का स्थल विदेश में धनोपार्जन करने पर बल देता है। इसी पुराण में जहाज के लिए पोत और यानपत्र' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो समुद्री मार्ग से व्यापार का स्पष्ट प्रमाण है। महा पुराण में वर्णित है कि जल-स्थल आदि के यात्रियों को वैश्य अभिधा से सम्बोधित करते थे। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि उस समय व्यापार एवं वाणिज्य का बिल्कुल ह्रास नहीं हुआ था।
४. आयात-निर्यात : जैन पुराणों के अनुशीलन से ज्ञाता होता है कि उस समय भारत में विदेशों से सामानों का आयात-निर्यात दोनों ही होता था । यूनान, कश्मीर, वालीक से भारत में घोड़ों का आयात होता था। भारत से निर्यातित वस्तुओं में हाथीदाँत, रेशम, सूत, हीरा, नीलम, चन्दन, केसर, मुंगे आदि थे।
१. द्रष्टव्य-यादव-वही पृ० २७०-२७५ २. हरिवंश ४६२७-२६ ३. पद्म २५४४ ४. वही ८३।८० ५. वही ५५।६१ ६. महा १६।२४४ ७. दही ६८१५६२; तुलनीय-भगवत शरण उपाध्याय-वही, पृ० २५५-२५७ ।
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