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________________ आर्थिक व्यवस्था ३२६ वर्णनानुसार शिल्पकारों की श्रेणियों के समान व्यापारियों की भी श्रेणियाँ होती थीं। उस समय व्यापार के मार्ग असुरक्षित थे। मार्ग में चोर-डाकुओं और वन्य पशुओं का भय रहता था । इसलिए व्यापारी लोग एक साथ मिलकर किसी सार्थवाह को अपना नेता बनाकर व्यापार के लिए निकलते थे । श्रेष्ठी अट्ठारह श्रेणी-प्रश्रेणियों का प्रधान माना जाता था। जैनेतर ग्रन्थ अमरकोश में सार्थवाह के लिए सार्थ, सार्थपार्थिव और सार्थानिक शब्द प्रदत्त हैं । समान या सहयुक्त अर्थ (पूंजी) वाले व्यापारी, जो बाहरी मण्डियों में व्यापार करने के लिए टाँडा बाँधकर चलते थे, उन्हें सार्थ संज्ञा से सम्बोधित करते थे। उनके नेता श्रेष्ठ व्यापारी को सार्थवाह की अभिधा प्रदत्त की गयी थी। पद्म पुराण के उल्लेखानुसार उस समय वाणिज्य विद्या का प्रचलन पर्याप्त मात्रा में था तथा वाणिज्य विद्या का अध्ययन करने के उपरान्त वे धनोपार्जन के लिए जाया करते थे। जैनेतर ग्रन्थों के वर्णनानुसार वणिक् श्रेणी या निगमों द्वारा बैंक का कार्य सम्पादित किया जाता था और ये पन्द्रह प्रतिशत की दर से ब्याज लेते थे। ऋणी यदि अपने देश में रहता था तो उसे ब्याज चुकाना पड़ता था, परन्तु यदि समुद्र यात्रा से बाहर गया हो और उसका जहाज डूब गया हो तथा किसी तरह जान बचाकर आया हो तो उसे ऋण नहीं देना पड़ता था । जैनसूत्रों में इसे 'वणिक्-न्याय' कथित है ।" हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि व्यापारीगण सत्यवादी एवं निर्लुब्ध व्यक्ति के पास अपने धरोहर रखते थे । निर्लुब्ध व्यक्ति नगर में धरोहर रखने के स्थान-भाण्डशालाओं का निर्माण करते थे । कभी-कभी धरोहर न देने पर राजा द्वारा दण्डित किया जाता था।' १. वरशवरसेनया"दुतमागतया । हरिवंश ४१२७; महा ४६।११२-१४२; तुलनीय-बृहत्कल्पभाष्य ३।३७५७; राइस डेविड्स-कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ० २०७ २. सार्थान् सधनान् सरतो वा पान्थान् वहील सार्थवाहः । अमरकोश ३।७।७८; तुलनीय-गोकुलचन्द्र जैन-यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, अमृतसर, १६६७, पृ० १६३ ३. आगतोऽस्म्यर्थलाभाययुक्तो वाणिज्य विद्या । पद्म ३३।१४५ ४. याज्ञवल्क्य २।३७; मनु ८।४१ ५. बृहत्कल्पभाष्य १२६६०, ६. हरिवंश २७।२३-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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