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________________ आर्थिक व्यवस्था ३१७ वस्तुतः इन पुराणों के रचनाकाल में आर्थिक समृद्धि का स्वरूप क्या था ? और इसकी यत्ता क्या थी? इसका यथातथ्य मूल्यांकन तो नहीं किया जा सकता है, परन्तु इतना विवादरहित है कि इनके वर्णनानुसार राष्ट्र के अर्थ का नियामक वह केन्द्रीयभूत सत्ता है जिसको व्यवहारतः "राजा' शब्द से अभिहित किया जाता है। आलोचित जैन पुराणों के प्रणयन-काल के समराइच्चकहा में त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) को भौतिक सुखों का मूलाधार बताया गया है।' आलोच्य महा पुराण में उल्लिखित है कि उस समय सर्वाधिक अर्थ की महत्ता थी। इसी पुराण में आर्थिक विचार के अन्तर्गत धनोपार्जन, अजित धन का रक्षण, पुनः उसका संवर्धन तथा भोगोपभोग में दान देना आता है।' २. अर्थोपार्जन और धर्मानुकूलता : जैन पुराणों में न्यायपूर्वक जीविकोपार्जन पर बल दिया गया है। इस संसार में मनुष्य की इच्छायें अनन्त हैं, किन्तु उनकी पूर्ति के साधन अत्यल्प हैं। अस्तु समस्त इच्छाओं की पूर्ति असम्भव है । इसलिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही संतोष करना चाहिए । विवेक एवं न्यायपूर्वक अजित साधन से ही इच्छा की पूर्ति करनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु न्यायेतर मार्ग का अनुसरण करता है तो उसे अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है। मनुष्य की समस्त सामाजिक क्रियाओं का सम्बन्ध आर्थिक जीवन से ही होता है। इसी लिए महा पुराण में उल्लिखित है कि न्यायपूर्वक धनार्जन करना ही जीवन को सुख की ओर संतुष्ट बनाने का एक मात्र मार्ग है। महा पुराण के अनुसार कामनाओं की पूर्ति का साधन अर्थ है और अर्थ की उपलब्धि धर्म से होती है। इसलिए धर्मोचित अर्थोपार्जन से इच्छानुसार सूख की प्राप्ति होती है और उससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं। इसी पुराण के अन्तर्गत धर्म का उल्लंघन न कर धनोपार्जन, उसकी सुरक्षा और योग्य पात्र को प्रदत्त करना ही मुख्य लक्ष्य १. झिनकू यादव-समराइच्चकहा : एक सांस्कृतिक अध्ययन, वाराणसी १६७७, . पृ० १५७-१५८ २. महा ४१।१५८ ३. वही ४२११२३ ४. न्यायोपार्जितवित्तकामघटनः .. ...। महा ४१।१५८ ५. महा ४२।१४; तुलनीय-गरुड़ पुराण १।२०५।६८ ६. धर्मादिष्टार्थसंपत्तिस्ततः कामसुखोदय: । स च संप्रीतये पूंसां धर्मात् सैषा परम्परा ॥ महा ५।१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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