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________________ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन कि प्रत्येक में कम से कम सौ शूद्र अथवा कृषक परिवार तथा अधिक से अधिक पाँच सौ परिवार हों, स्थापित किये जायें! प्रत्येक गाँव की सीमा एक कोस से दो कोस की हो । इनके रक्षार्थ अपनी-अपनी स्थित्यनुरूप पारस्परिक रक्षा का प्रबन्ध हो । सीमा का पार्थक्य अथवा निर्धारण किसी नदी, पर्वत, वन, वाल्बाकृति वीरुध, कन्दरा, पुल अथवा विशेष वृक्ष जैसे शाल्मली, शमी या क्षीरवृक्ष आदि से सम्पादित किया जाये । इन ग्रामों के रक्षार्थ ८०० ग्रामों के बीच स्थानीय दुर्ग, २०० ग्रामों के बीच द्रोणमुख दुर्ग तथा १० ग्रामों के बीच में संग्रहदुर्ग की स्थापना की जाये ।' २४८ जैनेतर ग्रन्थ मानसार एवं मयमत में ग्राम प्रभेद का वर्णन उपलब्ध है । मानसार के वर्णनानुसार ग्रामों के आठ भेद हैं- दण्डक, सर्वतोभद्र, नन्द्यावर्त, पद्मक, स्वस्तिक, प्रस्तर, कार्मुक तथा चतुर्मुख । मयमत के अनुसार भी ग्रामों के आठ भेद हैं - दण्डक, स्वास्तिक, प्रस्तर, प्रकीर्णक, नन्द्यावर्त, पराग, पद्म तथा श्रीप्रतिष्ठित । इस प्रकार मानसार एवं मयमत में केवल पाँच सामान्य ग्राम हैं- दण्डक, नन्द्यावर्त, पद्म (पद्मक), स्वस्तिक तथा प्रस्तर । ૨ २. नगर : 'नग' शब्द में तद्धित् का 'र' प्रत्यय होने पर नगर शब्द बना है । जहाँ पर नग अर्थात् उत्तमोत्तम वस्तुएं बिकती हों, उसे नगर कहते हैं । जैन पुराणों में नगर के विषय में वर्णित है कि जो परिखा, गोपुर, अट्टालिका, कोट और प्राकार से सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हों, जो उपवन एवं सरोवरों से युक्त हों, जो उत्तम रीति से उत्तम स्थान पर बसा हो, जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व एवं उत्तर दिशा के बीच वाली ईशान दिशा की ओर हो, जो प्रधान पुरुषों के रहने के योग्य हो, उसे प्रशंसनीय पुर या नगर संज्ञा से सम्बोधित किया गया है ।" महा पुराण में उल्लिखित है कि नगर में बड़ी ऊँची पताकाएँ फहरती थीं और तोरण बाँधे जाते थे । हरिवंश पुराण के वर्णनानुसार नगर में धूलि के बन्धान, कोट, परिखा, उद्यान, वन, आराम, १. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल-भारतीय स्थापत्य, लखनऊ, १६६८, पृ० ६१ २ . वही, पृ० ६३ ३. परिखागोपुराट्टालवप्रप्राकारमण्डितम् ४. 1 नानाभवनविन्यासं सोद्यानं सजलाशयम् । पुरमेवंविधं शस्तमुचितोद्देशसुस्थितम् । पूर्वोत्तरप्लवाम्भस्कं प्रधानपुरुषोचितम् । महा १६ १६६ - १७०, ७१।२५ शालशैलमहावप्रपरिवापरिवेषिणः | हरिवंश २।११; पाण्डव २।१५८ महा ६२।२६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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