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________________ शिक्षा और साहित्य से निकलते हैं, इसलिए वचनों में गुरु संस्कार करते हैं ।' जैनेतर ग्रन्थों में गुरु को शिष्य का 'मानस - पिता' कहा गया है । २ ५. गुरु के गुण : पद्म पुराण में गुरु के गुणों का उल्लेख है । उसे महाविद्याओं से युक्त, पराक्रमी, प्रशान्तमुख, धीरवीर, सुन्दर, शुद्ध, अल्पपरिग्रह का धारक, धर्म के रहस्य का ज्ञाता, अणुव्रती, गुणी, मृदुभाषी, कला-मर्मज्ञ, शिक्षा द्वारा आजीविका व्यतीत करने वाला कहा गया है ।" महा पुराण में गुरु के गुणों ( लक्षणों) को सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है । गुरु सदाचारी, स्थिर बुद्धिवाला, जितेन्द्रिय, सौम्य, भाषण में प्रवीण, गम्भीर, प्रतिभायुक्त, सुबोध व्याख्यान देने वाला, प्रत्युत्पन्न बुद्धिवाला, तर्कप्रेमी, दयालु, प्रेमी, दूसरे के अभिप्राय को समझने वाला, समस्त विद्याओं का अध्ययन करने वाला, धैर्यवान्, वीर, विद्वान्, वाङमयों का ज्ञाता, गम्भीर, मृदु, सत्य एवं हितकारी वचन बोलने वाला, सत्कुल में जन्म लेने वाला, अप्रमद्य, परहित साधन करने वाला, धर्मकथावाचक, महाविद्याओं से युक्त, पराक्रमी प्रशान्त मुख वाला, सुन्दर आकृति वाला, शुद्ध, अल्पपरिग्रह. वाला, धर्म के रहस्य का ज्ञाता, अणुव्रती, गुणी, भिक्षा द्वारा आजीविका व्यतीत करने वाला होता था । * ६. शिष्य के गुण : पद्म पुराण में वर्णित है कि विद्या प्राप्ति स्थिर-चित्त वालों को ही होती है । इसलिए शिष्य का प्रथम लक्षण है कि वह स्थिर चित्त वाला हो ।" आलोच्य महा पुराण में शिष्य के गुणों के विषय में वर्णित है कि शिष्य में विनयशीलता, अध्ययन एवं अध्यापक के प्रति श्रद्धा, विषयों की ग्रहणशीलता, जिज्ञासुवृत्ति, , शुश्रूषा, स्मरण शक्ति, तर्कण शक्ति, पाठों के श्रवण में सतर्कता, विषयों को धारण करने की शक्ति, अपोह (ज्ञान के आधार पर प्रावल्य एवं अकरणीय का त्याग ), युक्तिपूर्वक विचार - सामर्थ्य, सहज प्रतिभा, संयम और अध्यवसाय होना चाहिए ।" ७. शिष्य के दोष : पद्म पुराण में पात्रापात शिष्यों का विश्लेषण किया गया है । जैसे सूर्य का प्रकाश उल्लू के लिए व्यर्थ होता है वैसे ही अपात्र को प्रदत्त विद्या व्यर्थ होती है ।" महा पुराण में शिष्यों के किया गया है । दोषों का वर्णन १. महा ४३।१८ बौधायन धर्मसूत्र २८।३८-३६; गौतम धर्मसूत्र १।१०; मनु २।१७० पद्म १००।३३-३८ ३. ४. महा १।१२६-१३२ Jain Education International ५. ६. २३५ ७. पद्म २६।७ महा १।१६८, १।१४६, ३८।१०६ ११८ पद्म १००।५२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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