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राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था
२२१ [ग] सैन्य-संगठन अहिंसा प्रधान जैन धर्म ने सैन्य-वृत्ति को राज्य का एक आवश्यक अंग माना है। तत्कालीन आवश्यकताओं के अनुकूल सैन्य-संगठन के अभाव में किसी भी राज्य का अस्तित्व विद्यमान नहीं रह सकता था। देश की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा हेतु सेना को रखना अनिवार्य था। इसी लिए जैनाचार्यों ने सैन्य-वृत्ति की महत्ता पर बल दिया है । आलोचित जैन पुराणों में इस बात पर बल दिया गया है कि राजा को एक शक्तिशाली, सुयोग्य एवं कुशल सेना रखनी चाहिए । जैनाचार्यों ने पारम्परिक परम्परा का निर्वाह किया है। सैन्य-वृत्ति की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए महा पुराण में वर्णित है कि जिस व्यक्ति की युद्ध में मृत्यु होती है, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' आलोच्य जैन पुराणों में सेना विषयक वही सामग्री उपलब्ध होती है, जो इनकी रचनाकाल के अन्य साक्ष्यों से ज्ञात होती है । परन्तु यथास्थान उनका धार्मिक दृष्टिकोण अपना वैशिष्ठ्य प्रतिष्ठापित करता हुआ परिलक्षित होता है। पद्म पुराण में उल्लिखित है कि युद्ध में केवल नर-संहार होता है । इसलिए युद्ध करना केवल अपरिहार्य परिस्थितियों में ही समुचित है। अपार नर-संहार के अवरोधनार्थ जैनाचार्यों ने धर्म-युद्ध की व्यवस्था की थी। महा पुराण में वर्णित है कि बाहुबली और भरत दोनों सहोदर भाईयों के मध्य जब युद्ध की विनाशाग्नि प्रज्वलित होने वाली थी, उसी समय दोनों पक्षों के मुख्य-मंत्रियों ने आपस में मंत्रणा कर यह निश्चिय किया कि जिस युद्ध का उद्देश्य शान्ति के स्थान पर मात्र आत्म-श्लाघा हेतु अपार जनसमूह का विनाश हो, उसका सर्वथा त्याग करना चाहिए। ऐसी स्थिति में 'धर्म-युद्ध' अर्थात् दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध तथा मल्ल-युद्ध की व्यवस्था थी।' आलोचित जैन पुराणों में सैन्य-संगठन से सम्बन्धित निम्नलिखित ज्ञान प्राप्त होता है :
१. सेना और उसके अंग : देश की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा व्यवस्था के लिए जिन लोगों की नियुक्ति की जाती है उसे सेना कहा जा सकता है । आलोचित जैन पुराणों के प्रणयन काल के जैनेतर साहित्य शुक्रनीति में कथित है कि अस्त्रों तथा शस्त्रों से सुसज्जित मनुष्यों के समुदाय को सेना संज्ञा से सम्बोधित किया गया है।'
१. महा ४४।२३२ २. पद्म ६६।२४ ३. महा ३६।३७-४० ४. शुक्र ४।८६४
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