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गजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था
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करना तथा प्रजा का पालन करना आदि राजा की वृत्तियाँ थीं। महा पुराण में वर्णित है कि वह अपने राज्य में धर्म, अर्थ एवं काम के सम्वर्धनार्थ विविध प्रकार के कार्य करता था ।२ पद्म पुराण में राजा अपनी प्रजा से भेंट करने का समय देता था । यही विचार हमें जैनेतर ग्रन्थ महाभारत में भी उपलब्ध होते हैं।
__महा पुराण में राजा को सावधान करते हुए उल्लिखित है कि राजा को अन्य मतावलम्बियों से आशीर्वाद, शेषाक्षतादि ग्रहण नहीं करना चाहिए। इससे जैनियों की संकीर्ण विचारधारा का आभास मिलता है । सम्भवतः इसी संकीर्णता के कारण राजा इसका पालन नहीं करते थे। महा पुराण में वर्णित है कि यदि उसका दाहिना हाथ भी दुष्ट (दोष पूर्ण) हो जाए, तो राजा को उसे भी काट डालना चाहिए।' इसी प्रकार महा पुराण में उल्लिखित है कि दुष्टों का निग्रह तथा सज्जनों का संरक्षण करना राजा का धर्म है। पद्म पुराण में वर्णित है कि राजा भयभीत, ब्राह्मण, श्रमण (मुनि), निहत्थे व्यक्ति, स्त्री, बालक, पशु तथा दूत पर प्रहार नहीं करते हैं। इसी पुराण में राजा को गोत्रपरम्परानुसार तपस्वियों की सेवा का दृष्टान्त भी उपलब्ध है।
जैन पुराणों के अनुसार राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह वर्णाश्रम धर्म को वर्ण-संकरता से सुरक्षित रखे । इससे स्पष्ट होता है कि समाज में उस समय संक्रमणकाल चल रहा था। जैनाचार्यों ने भी वर्ण-संकरता को रोकने का प्रयास किया है । जैनाचार्य जिनसेन का कथन है कि राजा को न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करना
१. समं समज्जसत्वेन कुलमत्यात्मपालनम्। .
प्रजानुपालनं चेति प्रोक्ता वृत्तिर्महीक्षिताम् ।। महा ३८।२८१ २. महा ४१।१०३ ३.. पद्म ११:४६ ४. महाभारत शान्तिपर्व ६०।१६; महाभारत सभापर्व ५।११६ ५. महा ४२।२०-२६ ६. वही ६७।१११ ७. वही ६७।१०६ ८. नरेश्वरा ऊर्जितशौर्यचेष्टा न भीतिभाजं प्रहरन्ति जातु ।
न ब्राह्मण न श्रमण न शून्यं स्त्रियं न बालं न पशुं न दूतम् ॥ पद्म ६६।६० ६. पद्म ८५२५२ १०. हरिवंश १४।७; महा ४१।८२, ५०१३
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