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________________ १७६ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन है । भवनवासी देवों के गृह में स्वतः शंख-ध्वनि होने लगती है । व्यंतरों के भवनों में भेरियाँ बजने लगती हैं। ज्योतिषी देवों के सदनों में सिंह की स्वतः गर्जन सुनाई पड़ने लगती है एवं कल्पवासी देवों के यहाँ स्वतः घण्टा ध्वनित हो उठते हैं । इन्द्रसहित देवतागण जन्मोत्सव स्थल पर उपस्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक विक्रिया वेश धारण कर सिंहनाद एवं तालियाँ बजाते हुए नृत्य-गान करते थे । इन्द्राणी सहित इन्द्र प्रसूतिगृह से बालक को लेकर सुमेर पर्वत पर जाते हैं । वहाँ अभिषेक करने के उपरान्त वस्त्राभूषणों से सुसज्जित बालक को प्रसूतिगृह में पुनः पहुँचा देते हैं ।" [iii] दीक्षाकल्याणक या निष्क्रमण महोत्सव (दीक्षा महोत्सव ) : तीर्थंकर को किसी कारणवश विराग उत्पन्न होता है और वे गृह त्यागकर पालकी में बैठ कर किसी रमणीक स्थान में जाते हैं । वहाँ वह अपने बहुमूल्य वस्त्रालंकारों का त्याग कर स्वहस्त से अपने केश को नोच डालते हैं । उन बालों को इन्द्र क्षीर सागर में विसर्जित कर देते हैं । तीर्थंकर के दीक्षाकल्याणक महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर सभी लोग अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं । २ [iv] केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव (केवलज्ञानमहोत्सव ) : भगवान् को जब केवल ज्ञान उत्पन्न होता है तो उसी समय भामण्डल, अशोक वृक्ष और छत्रलय उत्पन्न होते हैं । देवतागण भगवान् की वन्दना करते हैं । भगवान् समवसरण के मध्य पर विराजमान होते हैं । सब लोगों के यथास्थान बैठ जाने के उपरान्त गणधर भगवान् से उपदेश देने की प्रार्थना करते हैं ।" [v] निर्वाणकल्याणक महोत्सव ( निर्वाण महोत्सव ) : इस उत्सव में शरणागत जीवों को भगवान् रत्नत्रय दान कर उनका भवसागर से उद्धार करते है । भगवान् के निर्वाण प्राप्ति पर इन्द्रादि देवता उपस्थित होकर निर्वाणकल्याणक महोत्सव सम्पन्न करते हैं । २. कल्याणाभिषेक : यह उत्सव भगवान् के माता-पिता के स्वर्गावतरण के अवसर पर इन्द्र द्वारा सम्पन्न किया जाता है ।" १. पद्म ३।१६०-२१२; हरिवंश ८।१२७-१७१; महा १३।३६- १६०, ५१।२४ २ . वही ३।२६३ - २८५; हरिवंश ६।७७-१०० ३. महा ४६।३६; ६६।५३; पद्म ४।२२-३३; हरिवंश ६।२-३ ४. ५. हरिवंश १२-१ तदाखिलामराधीशः समागत्य व्यधुर्मुदा । स्वर्गावतरणे पित्रोः कल्याणाभिषवोत्सवम् ॥ Jain Education International महा ७३१८८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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