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________________ सामाजिक व्यवस्था १५१ [अ] आभूषण आभूषण धारण करना समृद्धि एवं सुखी जीवन का द्योतक है। इसके अतिरिक्त वस्त्राभूषण से संस्कृति भी प्रभावित होती है। सिकदार के मतानुसार वस्त्र निर्माण-कला के आविष्कार के साथ-साथ आभूषण का भी प्रयोग भारतीय सभ्यता के विकास के साथ प्रारम्भ हुआ । जैन पुराणों में शारीरिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए आभूषण की उपादेयता का प्रतिपादन हुआ है। महा पुराण में वर्णित है कि कुलवती नारियाँ अलंकार धारण करती हैं, जबकि विधवा स्त्रियाँ इसका परित्याग कर देती हैं।' इसी ग्रन्थ में आभूषण से अलंकृत होने के लिए 'अलंकरणगृह और 'श्रीगृह" का उल्लेख हुआ है । महा पुराण में ही वर्णित है कि नूपुर, बाजूबन्द, रुचिक; अंगद (अनन्त), करधनी, हार एवं मुकुटादि आभूषण भूषणाङ्ग नाम के कल्पवृक्ष द्वारा उपलब्ध होते थे। प्राचीन काल में आभूषण एवं प्रसाधन-सामग्री की उपलब्धि वृक्षों से होने का उल्लेख प्राप्य है। शकुन्तला को विदाई के शुभावसर पर वृक्षों ने उसको वस्त्र, आभरण एवं प्रसाधन-सामग्री प्रदत्त किया था। १. आभूषण बनाने के उपादन : जैन पुराणों में आपाद-मस्तक आभूषणों के उल्लेख एव विवरण उपलब्ध होते हैं। यह विवरण पारम्परिक समसामयिक तथा काल्पनिक तीनों प्रकार के उपलब्ध होते हैं। जैन पुराणों के अनुसार आभूषण का निर्माण मणि, स्वर्ण, रजत आदि पदार्थों से होता था। महा पुराण में उल्लिखित है कि अग्नि में स्वर्ण को तपा कर शुद्ध करने के उपरान्त आभूषण निर्मित होते हैं। रत्नजटित स्वर्णाभूषण को रत्नाभूषण की संज्ञा से सम्बोधित करते हैं। समुद्र में महामणि के बढ़ने का भी उल्लेख मिलता है । १ जे० सी० सिकदार-स्टडीज़ इन द भगवतीसूत्र, मुजफ्फरपुर, १६६४, पृ० २४१ २. महा ६२।२६ ३. वही ६८।२२५ ४. वही ६३।४६१ ५. वही ६३१४५८ ६. तुलाकोटिक केयूररुचकाङ्गदवेष्टकान् । हारान् मकुटभेदांश्च सुवते भूषणाङ्गकाः ॥ महा ६४१ ७. क्षौमं केनचिदित्दुपाण्डुतरुणा..."प्रतिद्वन्द्विभिः ॥ अभिज्ञानशाकुन्तल ४।५ ८. महा ६१।१२४ ६. वही ६३१४१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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