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________________ सामाजिक व्यवस्था १२३ विज्ञानेश्वर, लेखपद्धति आदि ने दासी वृत्ति का उल्लेख किया है । (vii) वेश्या : वेशम् अर्हति या सा वेश्या अर्थात् जो वेश को प्रतिक्षण बदलती रहे वह वेश्या कहलाती है। भाव अर्थ में-किसी व्यक्ति विशेष को अनुकूल बनाने के लिए वेश बदलती है। समाज में वेश्याओं का अपना पृथक् स्थान था। यही कारण है कि सभी आचार्यों की दृष्टि उनकी ओर गयी। उनके लिए प्रशंसामूलक पद्य बनाये गये । हरिवंश में वर्णित है कि साकेत नगर में बुद्धिसेना वेश्या इतनी सुन्दर थी कि जिस पर मुग्ध होकर मुनि विचित्र मती ने मुनि पद का त्याग कर दिया था। उस समय राजकुमारों को व्यावहारिक शिक्षा वेश्याएँ प्रदान करती थीं, जिसे राजकुमार को ग्रहण करना अनिवार्य था। __ वेश्याओं के दो वर्ग थे-गीत नृत्य द्वारा आजीविकोपार्जन और अपना शरीर बेचकर जीविकार्जन करने वाली । प्रथम, जो वेश्याएँ नृत्य-गीत द्वारा आजीविका चलाती थीं उन्हें वारांगना कहा गया है। ये मांगलिक शुभावसरों पर अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करती थीं । विवाह, उत्सव, जन्म, राज्याभिषेक आदि शुभावसरों पर वारांगनों को विशेष रूप से बुलाया जाता था । वे शुभ की प्रतीक थीं और समाज में उनका सम्मानपूर्ण स्थान था। जैनेतर साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि वे वेश्याएँ नृत्य-गीत आदि कला सम्बन्धी कौशल से सुशोभित, सौन्दर्य की परम सीमा और यौवन की नूतन प्रतीक थीं। डॉ० नेमि चन्द्र जैन ने देवदासियों को ही वाराङ्गनाएँ कहा है। परन्तु यह मत अमान्य है, क्योंकि देवदासियाँ मन्दिर में भगवान् की मूर्ति के सामने ही नृत्य-गायन किया करती थीं न कि सार्वजनिक स्थानों पर । उनका प्रयोजन धार्मिक और आन्तरिक अभ्युदय की प्राप्ति था, धनार्जन नहीं। डॉ० यू० एन० घोषाल ने चाऊ-जू-क्वा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि गुजरात के ४,००० मन्दिरों में २०,००० देवदासियाँ रहती थीं। १. ए० बी० पाण्डे-पूर्वमध्यकालीन भारत का इतिहास, पृ० ४२४; असरफ लाइफ ऐण्ड कण्डीशन ऑफ द पीपुल ऑफ हिन्दुस्तान, पृ० १८६, काणेवही, पृ० १८६, आर० एस० शर्मा-इण्डियन फियुडलिज्म-पृ० ६०, ए० के० मजूमदार-चालुक्याज़ ऑफ गुजरात, पृ० ३४५-३४६, यादव-वही, पृ० ७३-७४ २. हरिवंश २७।१०१ ३. मंगलोद्गानमातेनः- रणन्नूपुरमेखलम् । महा ७।२४३-२४४; हरिवंश २११४२ ४. रघुवंश ३।१६; मेघदूत ३५, कामसूत्र १।३२०-३२१ ५. नेमिचन्द्र जैन-आदि पुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १८४ ६. बृजेन्द्र नाथ शर्मा-वही, पृ० ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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