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________________ सामाजिक व्यवस्था कुल' में विवाह का प्रचलन दाक्षिणात्यों में था ।' जैन पुराणों के सम्बन्धित स्थल विन्ध्य प्रान्तर के दक्षिणी भाग सम्भवतः सौराष्ट्र क्षेत्र के आस-पास लिखे गये थे । वर्णित है कि पत्नी बन्ध्या (ii) एकपत्नीव्रत और बहुविवाह : सामान्यतया भारतीय आदर्श में 'एकपत्नीव्रत' को प्रोत्साहन मिला है । किन्तु विषम एवं विशेष परिस्थितियों में बहुविवाह को भी मान्यता मिली थी । परन्तु ऐसी स्थिति कम ही अवस्थाओं में सम्भावित थी । उदाहरणार्थ, आपस्तम्बधर्मसूत्र में पुरुष उसी दशा में द्वितीय विवाह कर सकता था जबकि उसकी अथवा अधार्मिक हो । २ इसके अतिरिक्त 'एकपत्नीव्रत' का नियम आबद्ध्य नहीं कर सकता था । उदाहरणार्थ, भास द्वारा रचित 'स्वप्नवासवदत्तम्' नामक नाटक में उदयन की सपत्नियों की ईर्ष्या की ओर संकेतात्मक चित्रण मिलता है । कालिदास के शाकुन्तल में राजाओं के बहुपत्नीत्व का उल्लेख प्राप्य होता है । अन्य जैनेतर साक्ष्यों से भी बहुविवाह के उल्लेख उपलब्ध हैं । " राजपरिवार को ६ महा पुराण में राजाओं तथा समाज के धनी एवं सम्पन्न लोगों की कई पत्नियों का उल्लेख आया है। पद्म पुराण में वर्णित है कि लक्ष्मण की १६,००० रानियाँ तथा आठ पटरानियाँ थीं ।" राम की ८,००० रानियाँ एवं चार पटरानियाँ तथा रावण की १८,००० रानियाँ थीं । महा पुराण में भरत की ६६,००० रानियों का वर्णन है ।" इन अतिशयोक्तियों की पृष्ठभूमि में राजाओं के बहुपत्नीत्वपरम्परा का सन्निधान निर्विवादतः माना जा सकता है । पद्म पुराण में परस्त्री त्याग पर बल दिया गया है । " हमारे आलोचित जैन पुराणों के प्रणयन काल में यह परम्परा विशेषतः प्रचलित थी कि राजकुल में बहुविवाह एक लोकप्रिय परम्परा थी । तत्कालीन नरेशों के अनेक १. २. ४. ५. स्वमातुल सुतां प्राप्य दक्षिणात्यस्ते तुस्यति । अन्ये तु सव्यलीकेन मनसा तन्न कुर्वते ॥ तन्त्रवार्तिक, पृ० २०४ ७ आपस्तम्बधर्मसूत्र २१५।११।१२-१३ बहुबल्लभाः 'राजानः श्रूयन्ते । ६. ८. पद्म ६४ । २४-२५ १०. महा ३७ ३४-३६ ऋग्वेद १०/८५२६; शतपथब्राह्मण १३।४।१६; ३६, विष्णु पुराण १।१५।१०३-१०५; वायु पुराण २।३७१४२-४४ मत्स्य पुराण ५।१०-१२ महा १५/६६, ६८।१६६ Jain Education International ३. स्वप्नवासवदत्तं, अंक ३ अभिज्ञानशाकुन्तलम्, अंक ३ महाभारत, आदि पर्व १६० । ६३।४०-४२; ब्राह्मण पुराण ६७ ७. E. ११. पद्म ५८।६६, ६४।१७-१८ पद्म ५६।१७ पद्म १२।१२४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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