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________________ सामाजिक व्यवस्था [6] विवाह १. विवाह का महत्त्व : विवाह निखिल सामाजिक संस्थाओं का मूलाधार है। स्वाभाविक तथा सार्वजनिक स्थिति के कारण जैन पुराणों ने भी विवाह को एक महत्त्वपूर्ण कृत्य के रूप में स्वीकार किया है। जैन पुरणों के अनुसार गार्हस्थ्य-जीवन में प्रवेशार्थ वर-वधू सम्यक् जीवन व्यतीत करने, सन्तानों की रक्षा एवं सामाजिक व्यवस्था के लिए विवाह-सूत्र में बंधते थे। भोगभूमि काल में स्त्री-पुरुषों का युगल साथ-साथ उत्पन्न होता था, साथ ही साथ भोग भोगने के उपरान्त केवल एक युगल को जन्म देकर साथ ही साथ मृत्यु को प्राप्त करते थे।' सामाजिक व्यवस्था को संतुलित बनाने के लिए तथा वंश-विस्तारार्थ सन्तानोत्पत्ति को आवश्यक माना गया है । इसी लिए महा पुराण में इस बात पर बल दिया गया है कि पुत्रहीन मनुष्य की गति नहीं होती अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। यह कथन वेद विहित है ।२ महा पुराण में वर्णित है कि विवाह क्रिया गृहस्थों का धर्म है और सन्तान-रक्षा गृहस्थों का प्रधान कार्य है। क्योंकि विवाह न करने से सन्तति का उच्छेद हो जाता है और सन्तति के उच्छेद होने से धर्म का उच्छेद होता है। विवाह के महत्त्व एवं प्रचलन की सूचना जैनेतर साक्ष्यों से भी प्राप्य होती है । उदाहरणार्थ, कालिदास ने धर्म अर्थ एवं काम को विवाह का मुख्य उद्देश्य माना है। पारम्परिक विष्णु, ब्रह्माण्ड एवं मत्स्य पुराणों में सपत्नीक गृहस्थ को ही महान् फल, दान तथा अभिषेक का अधिकारी वर्णित किया है।" २. विवाह के प्रकार एवं भेव : प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रीय परम्परा में विवाह के निर्धारित आठ प्रकार-ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व. राक्षस एवं पैशाच-सुविदित हैं । इन आठ प्रकारों के क्रमबद्ध उल्लेख जैन पुराणों में १. पद्म ३।५१; महा ६५७८ २. महा ६५७६ ३. वही १५॥६२-६४ ४. गायत्री वर्मा-कालिदास के ग्रन्थ : तत्कालीन संस्कृति, वाराणसी, १६६३, पृ० ८१ ५. एस० एन० राय-पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहाबाद, १६६८, पृ० २२२ . ६. आश्वलायनगृह्यसूत्र १।६; बौधायनधर्मसूत्र ११११; गौतम ४।६-१३; याज्ञ वल्क्य ११५६-६१; कौटिल्य ३।१।५; मनु ३।२१; विष्णुस्मृति २४।१७-१८; विष्णु पुराण ३।१०।२४; विष्णुधर्मोत्तर पुराण २४॥१८-१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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