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________________ ८८ . जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन आया है कि सज्जाति, सद्गृहित्व, पारिव्रज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य एवं परिनिर्वृत्ति आदि सप्त क्रियाएँ कर्ज़न्वय क्रिया के अन्तर्गत आती हैं।' आगम के अनुसार उक्त सात कर्जन्वय क्रियाओं का पालन करने से योगियों को परम स्थान की प्राप्ति होती है।२ १. सज्जाति क्रिया : उत्तम वंश में विशुद्ध मनुष्य योनि में जन्म-ग्रहण करने पर जब वह दीक्षा ग्रहण करने योग्य होता है तो उसकी सज्जाति क्रिया होती है। पिता के वंश की शुद्धि को कुल एवं माता के वंश की शुद्धि को जाति कहते हैं । कुल एवं जाति की शुद्धि को सज्जाति कहते हैं । सज्जाति से इष्ट पदार्थों की पूर्ति (प्राप्ति) होती है। जब भव्य जीव (बिना योनि के प्राप्त हुए) दिव्य ज्ञान रूपी गर्भ से उत्पन्न होने वाले उत्कृष्ट जन्म को प्राप्त करते हैं, तब सज्जाति क्रिया होती है।' २. सद्गृहित्व क्रिया : सद्गृहस्थ होने के साथ ही आर्य पुरुष के करने योग्य छः कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य विशुद्ध आचरण को ग्रहण करता है, अर्हन्त्य के कथित उन समस्त आचारों को आलस्य मुक्त होकर सम्पन्न करता है, जिसने जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधरदेव ने जिसे शिक्षा दी है, ऐसा वह श्रेष्ठ द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज (आत्मतेज) को धारण करता है । द्विज को विशुद्ध होने तथा हिंसा से डरने का विधान है। हिंसा का आश्रय लेने वाले को चाण्डाल कहा गया है । जैनी ही वर्णोत्तम है । जैनियों को छ: कर्म करने से हिंसा का दोष लग सकता है, तथापि इसके लिए प्रायश्चित्त का विधान भी वर्णित है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक-ये चार आश्रम हैं, जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि को प्राप्त करते हैं । इस प्रकार के गुणों के द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि करना सद्गृहित्व क्रिया के अन्तर्गत है। ३. पारिव्रज्य क्रिया : गृहस्थ धर्म का पालन करने के उपरान्त विरक्त हुए पुरुष के दीक्षा-ग्रहण करने को पारिव्रज्य क्रिया कहा गया है । परिव्राट् का जो निर्वाण दीक्षा रूप भाव है उसे पारिव्रज्य नाम से सम्बोधित किया गया है। इस पारिव्रज्य में ममता भाव का त्याग कर दिगम्बर रूप ग्रहण करना होता है। शुभ दिन, लग्न आदि पर गुरु से दीक्षा प्राप्त करता है। मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकार की जिस-जिस वस्तु का परित्याग करता है, उसका तपश्चरण उसके लिए वही-वही वस्तु उत्पन्न कर देता है । अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा युक्ति से १. महा ६३।३०५ २. वही ३६०२०७ ३. महा ३८1८२-६८ ४. वही ३६६६-१५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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