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________________ सामाजिक व्यवस्था ८७ १४. कुलचर्या क्रिया : आर्य पुरुषों के उपयुक्त देवपूजा आदि छ: कार्यों में पूर्ण प्रवृत्ति रखना कुलचर्या कहलाती है।' १५. गहीशिता क्रिया : जो सम्यकचारित्य एवं अध्ययन रूपी सम्पत्ति से परपुरुषों का उपकार करने में समर्थ है, जो प्रायश्चित्त की विधि का ज्ञाता है, श्रुति, स्मृति, पुराण का जानकार है, ऐसा भव्य गृहस्थाचार्य पद को प्राप्त होकर गृहीशिता क्रिया को धारण करता है । २ १६. प्रशान्तता क्रिया : नाना प्रकार की उपवास आदि भावनाओं को प्राप्त होने वाले उस भव्य के समान ही प्रशान्तता क्रिया मानी जाती है। १७. गहत्याग क्रिया : जब वह घर-निवास से विरक्त होकर योग्य पुत्र को नीति के अनुसार शिक्षा देकर घर छोड़ देता है, तब उसकी गृहत्याग नामक क्रिया होती है। १८. दीक्षाद्य क्रिया : जो घर छोड़कर तपोवन में चला जाता है, ऐसे भव्य पुरुष का पूर्व की भाँति एक वस्त्र धारण करना दीक्षाद्य क्रिया होती है। १६. जिनरूपता क्रिया : जब गृहस्थ वस्त्र त्याग कर किसी योग्य आचरण वाले मुनिराज से दिगम्बर रूप धारण करता है, तब उसकी जिनरूपता क्रिया होती है। २० से ४८ तक की अन्य क्रियायें : उपर्युक्त क्रियाओं के अतिरिक्त जो अन्य क्रियाएँ शेष हैं, वे सभी गर्भान्वय क्रियाओं के सदृश्य की जाती हैं तथा प्रतिपाद्य हैं । इनमें और उनमें कोई भेद नहीं है । सभी के विधान एक समान हैं । स कर्ज़न्वय क्रिया : 'कर्तुः अन्वयः इति कन्वय' तत्पुरुष समास से रिकार को रेफ आदेश होने पर 'कन्वय' शब्द बनता है । इसका अर्थ कर्ता के अनुरूप क्रिया है । महा पुराण के अनुसार जैन धर्म के अन्तर्गत उन्हीं प्राणियों का कर्जन्वय क्रिया होने का विधान विहित है, जो संसार में अत्यल्प समय तक रहता है अर्थात् जिस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है, उसको इन क्रियाओं को करने का विधान है। इसमें यह भी उल्लेख १. महा ३६७२ २. वही ३६७३-७४ ३. वही ३६७५ ४. वही ३६७६ ५. महा ३६७७ ६. वही ३६७८ ७. वही ३६१७६ ८. वही ३६८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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