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सामाजिक व्यवस्था
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निवृत्त होने को अणुव्रत कहते हैं । उन व्रतों को ग्रहण करने के लिए सम्मुख पुरुष की जो प्रवृत्ति है, उसे दीक्षा कहते हैं और उस दीक्षा से सम्बन्ध रखने वाली जो क्रियाएँ हैं, वे दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं । मरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त दीक्षान्वय क्रिया अडतालिस (४८) प्रकार की वर्णित हैं। इसके सम्पादन से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।२ जो भव्य मनुष्य इन क्रियाओं को यथार्थतः जानकर पालन करता है, वह सुख के अधीन होता हुआ बहुत शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है । अड़तालिस दीक्षान्वय क्रियाओं का वर्णन निम्नवत् है :
१ अवतार क्रिया : जब मिथ्यात्व से भ्रष्ट हुआ कोई भव्य पुरुष समीचीन मार्ग के ग्रहण करने के सम्मुख होता है, तब अवतार क्रिया की जाती है। उस समय गुरु ही उसका पिता होता है और तत्त्वज्ञान ही संस्कार किया हुआ गर्भ है । यह भव्य पुरुष धर्म रूप जन्म द्वारा उस तत्त्व ज्ञान रूपी गर्भ में अवतरित होता है। इसकी यह क्रिया गर्भाधान क्रिया के सदृश्य मानी गयी है, क्योंकि जन्म की प्राप्ति दोनों ही क्रियाओं में नहीं है।
२. वृत्तलाभ क्रिया : उसी गुरु के चरण कमलों को नमस्कार करते हुए और विधिपूर्वक व्रतों के समूह को प्राप्त होते हुए भव्य पुरुष की वृत्तलाभ नामक द्वितीय क्रिया होती है।
३. स्थानलाभ क्रिया : उपवास करने वाले भव्य पुरुषों की स्थानलाभ क्रिया होती है। विधिपूर्वक जिनालय में जिनेन्द्र की पूजा कर गुरु की अनुमति से घर जाते हैं।
४. गणग्रहण क्रिया : जब मिथ्या देवताओं को घर से बाहर निकालता है; तो उसकी गणग्रह नामक क्रिया होती है। पहले देवता का विसर्जन कर उनके स्थान पर अपने मत के देवता की स्थापना करते हैं ।
५. पूजाराध्य क्रिया : पूजा और उपवास रूप सम्पत्ति के साथ-साथ अंगों के अर्थ समूह को श्रवण करने वाले उस भव्य पुरुष की पूजाराध्य की क्रिया सम्पन्न होती है।
१. महा ३६।३-५ २. वही ३६।१-२, ६३।३०४ ३. वही ३६८० ४. वही ३६७ ५. वही ३६।३४-३५
६. महा ३६।३६ ७. वही ३६।३७-४४ ८. वही ३६१४५-४८ ६. वही ३६१४६
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