________________
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
[३] यज्ञोपवीत : यद्यपि जैनाचार्य यज्ञोपवीत को नहीं मानते थे, तथापि यज्ञोपवीत के विषय में उनके ग्रन्थों से जो सामग्री उपलब्ध होती है, उससे तत्कालीन समाज में यज्ञोपवीत की महत्ता प्रतिपादित होती है । इन्हीं का विवेचन आगे किया गया है ।
७६
(i) व्युत्पत्ति एवं अर्थ : 'यज्ञस्य उपवीतम् इति यज्ञोपवीत' विग्रह से षष्ठीतत्पुरुष समास होकर यह निर्मित हुआ । इसका तात्पर्य है यज्ञ का अधिकार दिलाने वाला सूत्र | प्राचीन काल में धार्मिक अनुष्ठान करने के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार होना
आवश्यक था ।
(ii) स्वरूप एवं प्रकार : यज्ञोपवीत का उल्लेख न केवल प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध है, अपितु पुरातात्त्विक उत्खननों से भी बहुत साक्ष्य उपलब्ध होते हैं । देवगढ़ से यज्ञोपवीतधारी मूर्ति मिली है। यज्ञोपवीत के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं : (अ) तीन लर, (ब) सात लग्, एवं (स) ग्यारह लर |
(अ) तीन लर के यज्ञोपवीत के दो उप भेद हैं द्रव्यसूत्र एवं भावसूत्र । तीन र के यज्ञोपवीत को द्रव्यसूत्र से सम्बोधित किया गया है और इसके धारण करने से हृदय में उत्पन्न हुआ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र्य रूपी गुणों से बना हुआ विचार भावसूत्र है |
( ब ) सात लरों का यज्ञोपवीत सात परम स्थानों का सूचक माना जाता है । " ( स ) जिन भगवान् की ग्यारह प्रतिमाओं के अनुहरण में ग्यारह लरों का यज्ञोपवीत एक-एक प्रतिमा के व्रत के चिह्न स्वरूप होता है ।"
(iii) योग्यता : महा पुराण में यज्ञोपवीत धारणार्थ योग्यता निश्चित की गयी है । असि, मसि, कृषि, शिल्प एवं वाणिज्य आदि पकर्मी द्वारा योग्यतानुसार अपनी आजीविका करने वाला द्विज ही यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकारी होता
१.
२.
भाग चन्द्र जैन --- देवगढ़ की जैनकला, नई दिल्ली, १६७४, पृ० १३६ महा ३६६४-६५, ३६।५६ - १६७, हरिवंश ४२।५; तुलनीय - बौधायनधर्मसूत्र
१।५१५
३.
महा ३८।११२
४. वही ३८।२१-२२, ४१।३१
है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org