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पुरातत्व के प्रख्यात विद्वान श्री रामप्रसाद चन्दा लिखते हैं-"सिन्धु घाटी से प्राप्त मुहरों पर बैठी अवस्था में अंकित देवताओं की मूर्तियाँ ही योग की मुद्रा में नहीं हैं, किन्तु खड़ी अवस्था में अंकित मूर्तियाँ भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा को सूचित करती हैं, जिसका निर्देश ऊपर किया गया है। मथुरा म्यूजियम में दूसरी शती की कायोत्सर्ग में स्थित एक 'वृषभदेव जिन' की मूर्ति है। इस मूर्ति की शैली से सिन्धु से प्राप्त मुहरों पर अंकित खड़ी हुई देवमूर्तियों की शैली बिल्कुल मिलती है।
श्री चन्दा के लेख पर टिप्पणी करते हुए पुरातत्व के अधिकारी विद्वान डॉ. राधामुकुद मुकर्जी ने लिखा है-“यह मुद्रा जैन-योगियों की तपश्चर्या में विशेष रुप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की मूर्ति यदि ऐसा हो शैव-धर्म की तरह जैन-धर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु-सभ्यता तक चला जाता है। इससे सिन्धु सभ्यता एवं ऐतिहासिक भारतीय-सभ्यता के बीच की खोई हुई कड़ी का भी एक उभय साधारण सांस्कृतिक परम्परा के रुप में कुछ उद्धार हो जाता है।
उपर्युक्त अनुसंधानों के आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन धर्म का मूल कितना प्राचीन है। भारत की आदि सभ्यता (सिन्धु घाटी सभ्यता) के साथं जब विद्वान् लोग उसकी परम्परा को जोड़ते हैं, तो इसका मतलब हुआ कि वह महावीर पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और अन्य तीर्थकारों की परम्परा को पार करती हुई भगवान् ऋषभदेव की परम्परा के साथ जुड़ जाती है। उक्त उल्लेखों के आधार पर, लेख के प्रारम्भ में उठाई गई यह शंका अपने आप समाधान पा जाती है कि जैन धर्म का अविर्भाव कब से हुआ और इसकी प्राचीनता कितनी है।
१. यह सिन्धी भाषा का शब्द है-मोअन = मरे हए या म. जो = का दडो गफा क
टीला । ध्वनिसाम्य के कारण कुछ लोग अज्ञानवश मोअन को मोहन कह जाते हैं। २. मॉडर्न रिव्यु, जून १६६२ श्री आर. पी. चन्दा का लेख । ३. हिन्दू सभ्यता, पृ. २३-२४
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