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ऋग्वेद का एक मन्त्र देखिए
"प्रवा बभ्रो वृषभ, चेकितान यथा देव न हीणषे न हंसि । " ऋग्वेद २-३३-१५ (रुद्रसूक्त) अर्थात् हे वृषभ ! ऐसी कृपा करो कि हमें कभी कष्ट न हो । भारतीय - साहित्य और संस्कृति के महान् ग्रन्थ योगवसिष्ठ में श्री रामचन्दजी अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि मुझे किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं है, मैं तो जिन ( वीतराग) की तरह अपने आप में शांति-लाभ प्राप्त करना चाहता हूँ
नाह रामो न मे वाञ्छा भावेषु न च मे मनः । शन्न्त आसिंतु निच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा ।। इस उद्धरण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्रजी के समय से भी पहले जैन तीर्थंकारों के पवित्र जीवन की छाप भारतीय जनमानस पर अंकित थी । इतिहासकारों की धारणा के अनुसार रामचन्द्रजी को हुए ग्यारह लाख वर्ष हो गए ।
पुराण - साहित्य में भी स्थान-स्थान पर जैन तीर्थंकरों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के उल्लेख मिलते हैं ।
इन उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि वैदिक - संस्कृति की तरह जैन- संस्कृति भी अत्यन्त प्राचीन है एवं उसका अन्य संस्कृति तथा धर्मों पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।
अनुसन्धान के आलोक में
धर्म ग्रन्थों के आधार के साथ ही आज प्राचीन स्थलों की खुदाइयों में भी ऐसे चिन्ह प्राप्त हो रहे हैं, जिनसे जैन धर्म का मूल शैब-धर्म की तरह ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक जा रहा है। हम अनुसंधान के आलोक में उन तथ्यों को भी समझने का प्रयत्न करेंगे।
कुछ समय पूर्व मोहन जोदड़ो की खुदाई में एक ऐसी प्राचीन मूर्ति प्राप्त हुई है, जो कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित है। इस सम्बन्ध में १. वोगवासिष्ठ ( वैराग्य प्रकरण १५) निर्णयसागर प्रेस बम्बई से मुद्रित (सन् १९१८ ) ।
जैनत्व की झाँकी (86)
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