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________________ अन्य विद्वान् तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के काल तक जाते हैं, और उन्हें ही जैन धर्म का प्रवर्तक मानते हैं। हम प्रस्तुत लेख में ऐतिहासिक खोजों के आधार पर इन सब भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करके वास्तविक तथ्य समझने की चेष्टा करेंगे। जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म की शाखा नहीं है ___जैन धर्म को बौद्ध-धर्म की शाखा कहना तो इतिहास की सबसे बड़ी अज्ञानता है। बौद्ध-साहित्य का अध्ययन करने से यह बात भली-भाँति स्पष्ट हो जाती है कि तथागत बुद्ध के समय में जैन-धर्म की परम्परा बहुत ही गौरवशाली मानी जाती थी। बुद्ध ने स्वयं स्थान-स्थान पर भगवान् महावीर को - निग्गंठ नायपुत्तं (निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र) के नाम से सम्बोधित किया है। दूसरी बात भगवान् पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर हो गए हैं। उनके आचार-विचार का बुद्ध के जीवन तथा धर्म पर काफी प्रभाव पड़ा दिखाई देता है। पार्श्वनाथ के चातुर्याम संवर धर्म का बुद्ध ने अपने मुख से कई स्थानों पर उल्लेख किया है। जैन-साहित्य के अनेक पारिभाषिक शब्द, जैसे-जिन, श्रावक, भिक्षु, भिक्खु, निर्वाण आदि बौद्ध-साहित्य में ज्यों के त्यों प्रायः उन्हीं अर्थों में ले लिये गये हैं। इससे स्पष्ट होता है कि बुद्ध के समक्ष जैन-परम्परा विद्यमान थी और उसका तत्कालीन राजवंशों एवं जनता पर अच्छा प्रभाव था। इससे यह शंका भी निर्मूल हो जाती है कि जैन धर्म के संस्थापक भगवान् महावीर थे, क्योंकि भगवान् महावीर के ढाई-सौ वर्ष पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ हो गये हैं, और उनके चातुर्याम धर्म को मानने वाले अनेक राजवंश भगवान् महावीर से पहले ही विद्यमान थे। - - १. प्रो. याकोबी, 'सेक्रट बक्स आफ दि ईस्ट' जि. ४५ की प्रस्तावना पृ. २सा २. जैन-साहित्य का इतिहास (कैलाशचन्द्र शास्त्री) प्राक्कथन पृ. २२॥ - __Jain Education International For Private & Personal use जन धर्म की प्राचीनता (83)ary.ora
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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