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________________ १६ जैन-धर्म की प्राचीनता कितने ही जिज्ञासु प्रश्न करते हैं कि जैन-धर्म का आविर्भाव कब हुआ, जैन-धर्म एक नया ही धर्म है या प्राचीन तथा वह किसी अन्य धर्म की शाखा है या एक स्वतन्त्र धर्म है । धर्म-परम्परा का महत्व उसकी तेजस्विता में होता है, न कि प्राचीनतम में। किन्तु यदि उसकी तेजस्विता सुदीर्घ इतिहास के आधार पर खड़ी है, तो वह और भी ज्यादा प्रभावशाली हो जाती है, जैसे कि सोने में सुगन्ध । जैन-धर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में जन साधारण में कुछ भ्रान्त धारणाएँ व अज्ञान मूलक विचार चलते रहे हैं। आइए, इतिहास के प्रकाश में उनका निराकरण कर लें। इतिहास की इस पहेली को सैकड़ों विद्वान् सुलझाने में लगे हुए हैं। अब तक अनेक प्रामाणिक तथ्य प्रकाश में आये हैं, जिनसे बहुत से भ्रान्तियों का निराकरण हो गया है और हो रहा है। - कुछ समय पहले तक अनेक विदेशी विद्वान् और स्वामी दयानन्द जैसे कुछ भारतीय विद्वान् भी जैन-धर्म को बौद्ध धर्म की एक शाखा समझते रहे। उनका कहना था कि बौद्ध-धर्म से जैन धर्म की धारा निकली है । किन्तु इतिहास के प्रकाश में आज ये विचार एक गलतफहमी के सिवाय और कुछ नहीं रहे हैं। कुछ विद्वान् जैन-धर्म को एक स्वतन्त्र धर्म अवश्य मानते रहे हैं, किन्तु उनके विचार में इसके संस्थापक भगवान् महावीर स्वामी थे, इसलिए ढाई हजार वर्ष से आगे इसका इतिहास नहीं जाता । कुछ मज्झिमनिकाय पृ. २२५ जैनत्व की झाँकी (82) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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