________________
आजकल कुछ लोग तर्क करते हैं कि "मनुष्य अन्न खाता है, गेहूँ आदि के हजारों दाने पीस कर पेट में डाल लेता है, क्या इसमें हिंसा नहीं होती ? बकरे आदि मारने में तो एक जीव की हिंसा होती है, परन्तु अन्न खाने में तो हजारों जीवों की हिंसा हो जाती है।" उत्तर में कहना है कि - "गेंहूँ आदि की बुनियाद आबी और बकरे की बुनियाद पेशाबी है। गेहूँ अव्यक्त चेतना वाला जीव है और बकरा व्यक्त चेतना वाला । बकरे को मारने वाले के भाव प्रत्यक्षता क्रूर, निर्दय और घातकी होते हैं, जबकि गेंहूँ खाने वाले के ऐसे नहीं होते । अस्तु, बकरे की अन्न के दानों से तुलना करना, अज्ञानता का ही नहीं, मन की क्रूरता का भी परिचायक है। मांस-जैसी अपवित्र, घृणित, तामसी चीजों की सात्विक अन्न से तुलना कभी हो ही नहीं सकती।"
माँस खाना मानव-प्रकृति के भी सर्वथा विरुद्ध है । मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी प्राणी हैं, मांसाहारी नहीं। शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों की बनावट में भारी अन्तर होता है। मांसाहारी पशुओं के नाखून पैने, नुकीले होते हैं, जैसे- कुत्ता, बिल्ली, सिंह आदि के और शाकाहारी पशुओं के पैने नहीं होते, जैसे- हाथी, गाय, भैंस आदि के । माँसाहारी पशुओं के जबड़े लम्बे होते हैं, जबकि शाकाहारियों के गोल | गाय और कुत्ते के जबड़ों को देखने से यह भेद साफ मालूम हो जायेगा। मांसाहारी जीव पानी जीभ से चपल-चपल कर पीते हैं । और शाकाहारी ओंठ टेक कर । गाय, भैंस बन्दर आदि तथा इनके विपरीत सिंह, बिल्ली, कुत्ता आदि को देखने से यह सब भेद स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार शाकाहारी जीवों-गाय, घोड़ा, ऊँट आदि के पसीना आता है। इसके विपरीत - बिल्ली, शेर, चीता आदि मांसाहारियों को पसीना नहीं आता ।
आज के विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि बन्दर तथा लंगुर एकदम शाकाहारी प्राणी हैं। जीवन-भर ये फल-फूल आदि पर गुजारा करते हैं। मनुष्य की आन्तरिक तथा बाह्य बनावट भी हूबहू बन्दर तथा लंगूर से मिलती-जुलती है। अतः मनुष्य भी नितान्त शाकाहारी प्राणी
Jain
की ducation Internationar झाँकी (74)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org