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________________ हत्या करना तो और भी भयंकर बात हैं। वधिक जब चमचमाता हुआ छुरा लेकर मूक पशुओं की गर्दन पर फेरता है, उस समय का वह दृश्य कितना भयंकर होता होगा ? सहृदय मनुष्य तो उस राक्षसी दृश्य को अपनी आँखों से देख भी नहीं सकता। खून की धारा बह रही हो, माँस का ढेर लग रहा हो, हड्डियाँ इधर-उधर बिखर रही हों, रक्त से सने हुए चमड़े के खण्ड इधर-उधर बिखरे पड़े हों, और ऊपर से गीध, चील आदि निन्द्य पक्षी मँडरा रहे हों, तो स्पष्ट है कि इस घृणित दशा में, मनुष्य नहीं, राक्षस ही काम कर सकता है। यही कारण है किं. यूरोप आदि देशों में तो प्रतिष्ठित न्यायाधीश कसाई की गवाही भी नहीं लेते हैं। उनकी दृष्टि से कसाई इतना निर्दय हो जाता है कि वह मनुष्य ही नहीं रह जाता । हृदयहीन निर्दय मनुष्य में मनुष्यता एवं तदनुकूल प्रामाणिकता रह भी कहाँ सकती है ? जैन-धर्म में मांसाहार का बड़ी दृढ़ता के साथ निषेध किया गया है। करुणा के प्रत्यक्ष अवतार भगवान महावीर ने मांसाहार को दुर्व्यसनों में माना है और इसे नरक का कारण बताया है। स्थानांग सूत्र के चौथे स्थान में बताया है "चार कारणों से प्राणी नरक में जाता है(१) महाआरम्भ करने से, (२) महापरिग्रह रखने से, (३) पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से और (४) माँस-भक्षण करने से । ". एक आचार्य ने तो माँस शब्द की व्युत्पत्ति ही बड़ी हृदय-स्पर्शी ढंग से की है। मांस शब्द में दो अक्षर हैं, 'माँ' और 'स' । 'माँ' का अर्थ मुझको होता है, 'स' का अर्थ वह होता है। दोनों अक्षरों का मिलकर यह मूढ़ार्थ निकलता है कि जिसको में यहाँ मारकर खाता हूँ, वह मुझे भी कभी मारकर खाएगा। मांसाहारी लोग इस अर्थ का गम्भीरता के साथ विचार करें और मांसाहार की दुर्वृत्ति को त्याग कर अपने को भावी कष्टों से बचायें । Jain Education International मांसाहार का निषेध (73) library.org For Private & Personal Use Only
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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