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________________ १४ मांसाहार का निषेध संसार में एक-से-एक भयंकर पाप हमारे सामने हैं। परन्तु मांसाहार का पाप बड़ा ही भयंकर तथा निन्दनीय है। मांसाहार मनुष्य के हृदय की कोमल भावनाओं को नष्ट भ्रष्ट कर उसे पूर्णतया निर्दय और कठोर बना देता है। मांस किसी खेत में नहीं पैदा होता, वृक्षों पर नहीं लगता, आकाश से नहीं बरसता, वह तो चलते-फिरते प्राणियों को मारकर उसके शरीर से प्राप्त होता है। जब आदमी पैर में लगे एक कांटे का दर्द भी सहन नहीं कर सकता, दर्द के कारण रात-भर छटपटाता रहता है, तब भला दूसरे निरपराध मूक जीवों की गर्दन पर छुरी चला देना, किस प्रकार न्यायसंगत हो सकता है ? जरा शान्त चित्त से ईमानदारी के साथ विचार कीजिए कि उनको कितना भयंकर दर्द होता होगा। अपने क्षणिक जिहा के स्वाद के लिए दूसरे मूक जीवों को मौत के घाट उतार देना, कितना जघन्य आचरण है। जब आदमी किसी को जीवन नहीं दे सकता, तो उसे क्या अधिकार है कि वह दूसरे का जीवन छीन ले ? आहार-विहार में होने वाली साधारण जीवों की हिंसा भी जब निन्दनीय मानी जाती है, तब बराबर के साथी उपयोगी पशुओं की जैनत्व की झाँकी (72) माँसाहार से मन में क्रूरता, उन्माद, उत्तेजना और विकार बढ़ते हैं। विकारग्रस्त मनुष्य समाज में अशान्ति और संघर्ष का वातावरण पैदा करता है। व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की शान्ति के लिए यह आवश्यक है कि मन सात्विक भावनाओं से अनुप्राणित रहे। जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन इस लोकोक्ति के अनुसार सर्वप्रथम आहार की शुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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