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आज का मनुष्य प्रातः काल बिस्तर से उठते ही खाने लगता है, और दिन-भर पशुओं की तरह चरता रहता है। घर पर खाता है, मित्रों के यहाँ खाता है, बाजार में खाता है। और तो क्या, दिन छिपते तक खाता है, रात को खाता है और बिस्तर पर सोते-सोते भी दूध का गिलास पेट में उड़ेल लेता है। पेट है या कुछ और .....! भोजन के कुछ नियम ... भारत के प्राचीन शास्त्रकारों ने भोजन के सम्बन्ध में बड़े ही सुन्दर नियमों का विधान किया है। भोजन में शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, स्वाद का नहीं। माँस और शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों से सर्वथा घृणा रखनी चाहिए, और साथ ही वह शुद्ध भोजन भी भूख लगने पर ही खाना चाहिए। भूख के बिना भोजन का एक कौर भी पेट में डालना, अन्न का भक्षण नहीं, एक प्रकार से पाप का ही भक्षण करना है। भूख लगने पर भी दिन में दो-तीन बार से अधिक भोजन नहीं करना है। और रात में भोजन करना तो धर्म एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उचित नहीं है।
__ जैन धर्म में रात्रि-भोजन के निषेध पर बहुत बल दिया गया है। प्राचीन काल में तो रात्रि-भोजन न करना, जैनत्व की पहचान के लिए एक विशिष्ट लक्षण था। रात्रि-भोजन में जैन धर्म ने हिंसा का दोष बतलाया है। बहुत से इस प्रकार के छोटे-छोटे सूक्ष्म जीव होते हैं, जो दिन में सूर्य के प्रकाश में तो दृष्टि में आ सकते हैं, परन्तु रात्रि में तो वे कथमपि दृष्टिगोचर नहीं हो सकते । रात्रि में मनुष्य की आँखें निस्तेज हो जाती हैं। अतएव वे सूक्ष्म जीव भोजन में गिर कर जब दाँतों के नीचे पिस जाते हैं और अन्दर पेट में पहुँच जाते हैं, तो बड़ा ही अनर्थ करते हैं। जिस मनुष्य ने मांसाहार का त्याग किया है, वह कभी-कभी इस प्रकार मांसाहार के दोष से दूषित हो जाता है। विचारे जीवों की व्यर्थ ही अज्ञानता से हिंसा होती है और अपना नियम भंग होता है। कितने अधिक बिचारने की बात है।
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