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कुछ मनुष्य जीने के लिए भोजन करते हैं। और कुछ भोजन के लिए जीते हैं। पहली कोटि के मनुष्य विवेकी, विचारशील, धर्मात्मा होते हैं। उनके भोजन में खाद्य वस्तु और समय का विवेक रहता है।
दूसरी कोटि के मनुष्य पशु की तरह बिना किसी विचार व विवेक के अन्तर्गत खाते रहते हैं दिन में भी और रात में भी। वे भोजन के अविवेक के कारण अनेक प्रकार के रोगों के शिकार हो जाते हैं और फिर उन्हें कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ता है।
प्रस्तुत निबन्ध में अमर्यादित एवं असामयिक भोजन से होने वाली अनेक हानियों का दिग्दर्शन कराया गया है।
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भोजन का विवेक
जीवन के लिए भोजन आवश्यक है। बिना भोजन किये, मनुष्य का दुर्बल जीवन टिक नहीं सकता। आखिर मनुष्य अन्न का कीड़ा ठहरा। परन्तु भोजन करने की भी एक सीमा है। जीवन के लिए भोजन है, न कि भोजन के लिए जीवन ! खेद की बात है कि आज के युग में भोजन के लिए जीवन बन गया है। आज का मनुष्य भोजन पर मरता है। खाने-पीने के सम्बन्ध में प्राचीन नियम सब भुला दिये गये हैं। जो कुछ भी अच्छा-बुरा सामने आता है, मनुष्य झटपट चट करना चाहता है। न माँस से घृणा है, न मद्य से परहेज । न भक्ष्य का पता है, न अभक्ष्य का | धर्म की बात तो जाने दीजिए, आज तो भोजन व भोजन के स्वाद के फेर में पड़कर अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखा जा रहा है।
जैनत्व की झाँकी (68) Jain Education International
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