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प्रथम तो ईश्वर किसी को दण्ड देता है, वह सिद्धान्त ही मिथ्या है। ईश्वर वीतराग है, राग द्वेष से सर्वथा परे हैं। उसे ऐसी क्या पड़ी है कि व्यर्थ ही विचारे जीवों को सताता फिरे। ईश्वर को दण्डदाता मानना, पीड़ित प्राणियों के प्रति अपनी सहानुभूति और कर्त्तव्य की उपेक्षा करना है।
दूसरी बात यह है कि यदि ईश्वर दण्ड दे रहा हो, तब भी हमें सहायता करनी चाहिए। जैन-धर्म तो यदि साक्षात् ईश्वर भी सामने आकर रोके, तब भी किसी दुःखी की सहायता करने से नहीं रुक सकता। मनुष्य को अपने हृदय में से उठने वाली मानवता की आवाज को सुनना चाहिए, फिर ईश्वर भले ही कुछ कहता रहे। क्या इस प्रकार ईश्वर की उपासना का यही फल है कि संसार में कोई गरीब के आँसू पोंछने वाला भी न रहे? सर्वत्र हाहाकार और अत्याचार का ही राज्य रहे। नहीं जैन धर्म ऐसा कभी नहीं होने देगा। वह दीनबन्धु है, अपना कर्तव्य हर हालत में अदा करेगा।
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