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________________ सकंटकाल में किसी प्राणी को सहायता पहुँचाने का प्रश्न हो, वहाँ पात्र-अपात्र पर विचार करना, किस महान् धर्म का सिद्धान्त है ? कम-से-कम जैन-धर्म का हमें पता है । वहाँ तो यह अणु मात्र भी नहीं है। जैन-धर्म तो प्राणिमात्र के प्रति कल्याण की भावना को लेकर भूमण्डल पर आया है । वह मानव- हृदय में उठने वाली दया की लहर को किसी विशेष जाति, विशेष राष्ट्र, विशेष पंथ, विशेष सम्प्रदाय अथवा विशेष व्यक्ति की संकुचित सीमा में बाँधना नहीं चाहता। जो गरीब भाई तुम्हारे सम्मुख आकर एक रोटी के टुकड़े की आशा प्रकट करे और अपना हाथ फैलाए, क्या वह गरीब कुपात्र है ? क्या भू-मण्डल पर किसी दुःखी को किसी सुखी से कुछ पाने का अधिकार नहीं है ? अभाव ने गरीब को जिस दुरवस्था में डाला है, क्या हम उसे दुःस्थिति में सड़ने दे ? क्या यह मानवता होगी ? नहीं कदापि नहीं दीन-दुःखी को दान देना, सहयोग करना, कभी भी किसी तरह भी असंगत नहीं कहा जा सकता । क्या गरीबी ईश्वरीय दण्ड है ? भूखे और गरीब प्राणियों को दान देने के विरोध में एक ओर तर्क है, जो बिल्कुल ही अजीव है : कुछ दार्शनिक कहते हैं- "लँगड़े लूले दरिद्र, कुष्ठी आदि को दान नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह परमेश्वर का कोपभाजन है, ईश्वर उसे उसके पापों का दण्ड दे रहा है । अस्तु, उस पर दया लाकर सहायता पहुँचाना, एक प्रकार से भगवान् की दण्डव्यवस्था का विरोध करना है। ईश्वर जिसको पापी समझ कर सजा देता है, उसको अपनी प्राप्त सजा भुगतने देना ही उचित है। आवश्यकता से अधिक इन बुद्धिमानों ने मान लिया है कि ईश्वर सजा दे रहा है, और वह हमारे दान के द्वारा दखल देने से अप्रसन्न होगा। क्या दूर की सूझी है ? ईश्वर मारता है तो तुम भी क्यों न मारो, बड़े अच्छे सूपत कहलाओगे ? जैन - दर्शन कहता है कि जैनत्व की झाँकी (66) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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