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________________ वाले पुण्य की प्राप्ति होती है। जैन-साहित्य में दान की महिमा और उसका महान् फल बताने वाले हजारों उदाहरण भरे पड़े हैं। कयवन्ना सेठ, शालिभद्र, धन्ना सेठ, आदि के कथानक तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं। दान का यह विवेचन उन लोगों की आँखें खोलने के लिए है, जो यह कहते हैं कि-'जैन-धर्म तो निष्क्रिय धर्म है। वह केवल अपने तप और त्याग की भावना में ही सीमित है। जैन-कल्याण के लिए कोई क्रियात्मक उपदेश उसके पास नहीं हैं। कोई भी विचारक देख सकता है कि यह दान का विस्तृत विवेचन जैन धर्म की सक्रियता सिद्ध करता है या निष्क्रियता। जन-कल्याण के क्षेत्र में जैन-धर्म ने जो विचारधारा दान के विषय में संसार के समक्ष रखी है, वह बेजोड़ हैं। दान का विवेचन एक प्रकार से समाप्त किया जा चुका है। फिर भी एक दो प्रश्न ऐसे हैं, जिन पर विचार कर लेना अतीव आवश्यक है। कुछ लोग कहते हैं-'दान-धर्म है। परन्तु उसका अधिकारी केवल सुपात्र ही है। और वह सुपात्र और कोई नहीं, एकमात्र साधु ही है। अतएव साधु के अतिरिक्त किसी गरीब एवं दुःखी संसारी प्राणी को दान देना, अधर्म है, धर्म नहीं। संसारी जीव सब कुपात्र हैं। और कुपात्र का दान भव-भ्रमण का कारण है। दान के सम्बन्ध में यह तर्क सर्वथा असंगत है। क्या सुपात्र एक मात्र साधु ही हैं, और कोई नहीं ? क्या गृहस्थ में रहकर सदाचार पूर्वक जीवन बिताने वाले सब लोग कुपात्र हैं ? सुपात्र का सम्बन्ध एकमात्र साधु से ही लगाना, शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करना है। कोई भी सदाचारी जीवन बिताने वाला सुपात्र कहला सकता है। और फिर यह कहाँ का नियम है कि सुपात्र को ही दान देना और किसी गरीब दीन-दुःखी को नहीं ? भगवान् महावीर ने तो जैनत्व का एक प्रमुख लक्षण यह भी माना है कि-"दुखी को देखकर मन में अनुकम्पाःभाव लाना और यथाशक्य उसका दुःख दूर करने का प्रयत्न करना। यह ठीक है कि सुपात्र को दान देने का बहुत अधिक महत्व है। परन्तु जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only wata (65)rary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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