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पाकर प्राणी को जो सुख होता है, वह सुख संसार में न कभी हुआ, और न कभी होगा।
दयालु मनुष्य भगवान् का स्थान प्राप्त कर लेता है। भगवान् महावीर ने भी भगवान् का पद अभयदान के द्वारा ही प्राप्त किया था। भगवान् ने न अपनी ओर से किसी को कष्ट दिया, और न किसी और से दिलवाया। इतना ही नहीं, यज्ञ आदि में मारे जाने वाले मूक्र पशुओं की रक्षा के लिए भी अपना समूचा जीवन लगा दिया। भारत-वर्ष से अश्वमेघ आदि हिंसक यज्ञों के अस्तित्व का लोप होने में भगवान् महावीर का वह अभय-दान सम्बन्धी महान् प्रयत्न ही मुख्य कारण था। ___ अतएव प्रत्येक जैन का कर्तव्य है कि वह जैसे भी बने, दुःखी जीवों की सहयता करे, मरते जीवो की रक्षा करे, भूख और प्यास के दम तोड़ते हुए जीवों की अन्न-जल द्वारा प्राण-रक्षा करे। गौशाला एवं पिंजरापोल आदि के द्वारा मूक पशुओं की सेवा का उचित प्रबन्ध करें, जीव-दया के कार्यों में अधिक-से-अधिक अपने धन का उपयोग करें। आज के हिंसामय युग में दया की गंगा बहाने का आदर्श कार्य, यदि जैन नहीं करेंगे, तो कौन करेंगे? जैन जहाँ भी हो, जिस स्थिति में भी हो, सर्वत्र अहिंसा और करुणा का वातावरण पैदा कर दे। सच्चा जैन वही है, जिससे स्नेह को पाकर विपद्-ग्रस्त के आँसू बहाते मुख पर भी एक बार तो प्रसन्नता का मधुर हास्य चमक उठे। जैन जहाँ भी हो, जीवन देने वाले के नाम से प्रसिद्ध हो। दान का महान् फल
दान के ये चार प्रकार केवल वस्तु-स्थिति के निर्देशन के लिए हैं। दान-धर्म की सीमा इतने में ही समाप्त नहीं हैं। जो भी कार्य दूसरे को सुख-सुविधा पहुंचाने वाला हो, वह सब दान के अन्तर्गत आ जाता है। भगवान् महावीर ने पुण्य की व्याख्या करते हुए बतलाया है कि अन्न, जल, वस्त्र आदि के दान के मनुष्य को स्वर्गादि सुख के देने
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जैनब की झांकी (64)
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