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(३) ज्ञानदान
ज्ञान के बिना मनुष्य अन्धा होता है। यदि किसी अन्धे को आँखें मिल जायें, तो देखिये कितना आनन्दित होता है। उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य को विद्या का दान देना, बहुत महत्वपूर्ण दान है। ज्ञान-दान की तुलना, चक्षुदान से की गई है।
प्राचीन काल में नालन्दा आदि विश्व - विद्यालय इसी भावना को लक्ष्य में रखकर स्थापित किये गये थे, जहाँ भारत के और भारत से बाहर श्याम, जाबा, सुमात्रा, चीन, तुर्की, यूनान आदि देशों के हजारों विद्यार्थी बिना किसी भेद-भाव के ज्ञानार्जन करते थे । गरीब विद्यार्थियों, के लिए पाठशाला खोलना, पाठशालाओं को दान देना, स्कालरशिप देना, पुस्तकें बगैरह देना, बोडिंग हाउस बनाना आदि सब विद्या - दान में शामिल होता है ।
जैन-धर्म ने इस क्षेत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण भाग लिया है। आचार्य अमित गति ने यहाँ तक कहा - "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - चारों ही पुरुषार्थ विद्या के द्वारा सिद्ध होते हैं। अतः विद्या दान देने वाला चारों ही पुरुषार्थ पाने का अधिकारी है।" भगवान महावीर ने भी कहा है- "पढ़मं नाणं तओ दया ।" अर्थात् "पहले ज्ञान है और बाद में दया, तप, परोपकार आदि सब आचरण हैं।"
(४) अभयदान
अभयदान का अर्थ है- किसी मरते हुए प्राणी को बचाना तथा किसी संकट में पड़े प्राणी का उद्धार करना। यह सर्वश्रेष्ठ दान समझा गया है। भगवान् महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा है- 'दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं' अर्थात् 'सब दोनों में अभयदान श्रेष्ठ है' ।
अभय-दान जैन-धर्म का तो प्राण है। जैन धर्म की बुनियाद ही अभयदान पर है। आचार्य अमितगति उपासकाचार में कहते हैं-अभयदान
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