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(२) औषध-दान
मनुष्य जब रोग ग्रस्त होता है, तब किसी भी काम का नहीं रहता है। न वह यथोचित पुरुषार्थ कर अपना और परिवार का ही पेट पाल सकता है, और न अच्छी तरह श्रद्धा-भावना के साथ धर्माराधना ही कर सकता है। मन स्वस्थ होने पर ही सब साधना होती है और मन की स्वस्थता प्रायः तन की स्वस्थता पर निर्भर है। यदि तुम कभी बीमार पड़े हो, तो उस समय का अनुभव स्मृति में लाओ। कितनी वेदना होती थी? कितना छटपटाते थे ? बस समझ लो, सब जीवों को अपने समान ही दुःख होता है। अतएव जैन-धर्म में औषध-दान' का भी बहुत बड़ा महत्व है ।
आचार्य अमितगति उपासकाचार में कहा है- " औषध दान का महत्व वचन से वर्णन नहीं किया जा सकता। औषध - दान पाकर जब मनुष्य नीरोग होता है, तो एक बार तो सिद्ध भगवान जैसा सुख पा लेता है ।"
आचार्य ने यह उपमा नीरोगता की दृष्टि से कही है। सिद्ध भगवान् आध्यात्मिक दृष्टि से नीरोग है, तो साधारण संसारी जीव भौतिक दृष्टि से नीरोग होता है। नीरोग होने पर अनाकुलता होती है, और अनाकुलता ही वस्तुतः सच्चा सुख है ।
जैन-धर्म के एक मर्मी सन्त, सुखों की गणना करते हुए कहते हैं- "पहला सुख निरोगी काया ।" रोग-रहित अवस्था पहला सुख माना गया है । ठीक भी है-जब आदमी बीमार होता है तो उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। भोजन-पान, राग-रंग सब जहर मालूम होने लगते हैं । औषध - दान ही मनुष्य को यह पहला सुख प्रदान करता है। जब कोई रोगी किसी भी औषध से अच्छा हो जाता है, तब कितना आशीर्वाद देता है? यह आशीर्वाद ही मनुष्य को सुख-शान्ति देने वाला होता है।
जैनत्व की झाँकी (62)
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