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प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राएँ दान में देते रहे। भगवान् पार्श्वनाथ आदि दूसरे तीर्थंकर भी बहुत बड़े दानी थे। जैन धर्म में जहाँ दान, शील, तप और भावना के रुप में धर्म के चार भेद बताये हैं, वहाँ सर्वप्रथम स्थान दान को ही प्रदान किया है। वस्तुतः दान है भी सर्वप्रथम स्थान पाने के योग्य।
दान के चार भेद जैन-शास्त्रों में दान के चार प्रकार बतलाए हैं(१) आहार-दान, (२) औषध-दान, (३) ज्ञान-दान और (४) अभय-दान।
प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है(१) आहार-दान ... देहधारी के लिए सबसे पहली आवश्यकता भोजन की है। जब
भूख लगी होती है, तब कुछ नहीं सूझता। अन्न जीवन का प्राण है। जिसने अन्न का दान दिया, उसने सब-कुछ दिया।
घर पर आए हुए संसार-त्यागी साधु-मुनिराजों को विजय-भक्ति के साथ आहार बहराना चाहिए। मुनियों को दान देना अक्षय धर्म को प्राप्त करना है। सच्चे साधुओं को आहार-दान करने से पाप-कर्मों की बहुत अधिक निर्जरा होती है।
साधुओं के अतिरिक्त किसी भूखे गरीब को भोजन देना भी बहुत बड़े धर्म एवं पुण्य का कार्य है। राजा प्रदेशी ने जैनमुनि केशीकुमार स्वामी के उपदेश से प्रभावित होकर गरीबों के लिए अपने राज्य की आय का चतुर्थांश दान में लगाने का प्रबन्ध किया था। जैन धर्म विश्व-वेदना का अनुभव सदा से करता आया है। जनता के दुःख-दर्द में बराबर का हिस्सेदार बन कर यथोचित सहायता पहुँचाने, उसने अपना महान् कर्त्तव्य माना है।
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