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________________ को जागृत करता है, हृदय में दया और प्रेम की गंगा बहा देता है, सहानुभूति का एक सुन्दर सुरभिमय वातावरण तैयार करता है। दान देने से संसार में कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती । दान देने वाला सर्वत्र प्रेम और आदर का स्वागत पाता है। उसके यश की सुगन्ध दशों दिशाओं में सर्वत्र फैल जाती है। - दान देना कोई साधारण कार्य नहीं है। अपनी संग्रह की हुई वस्तु को मुक्तमन से प्रसन्नतापूर्वक किसी को अर्पण कर देना, वस्तुतः बहुत बड़े सत्साहस का काम है। लोग कौड़ी - कौड़ी पर मरते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं। पैसे पैसे के लिए अपने प्राणों को खतरे में डालते हैं। दुनिया भर का तूफान खड़ा करने के बाद कहीं चार पैसे प्राप्त होते हैं। दस प्राण तो शास्त्रों में बताए ही हैं। धन को लोग ग्यारहवाँ प्राण बतलाते हैं। तभी तो कहा है 'देना और मरना बराबर है।' अपने पसीने की गाढ़ी कमाई को परोपकार में खर्च करना, बड़े ही भाग्यशाली दिव्य आत्माओं का काम है। जो स्त्री-पुरुष निस्वार्थ भाव से दान करते हैं, और दान करके प्रसन्न रहते हैं, सचमुच वे देवस्वरुप हैं । दान देते समय दाता, जीवन की एक बहुत बड़ी ऊँचाई पर पहुँच जाता है । जैन-धर्म में दान की बड़ी महिमा गाई है। दान देने वाले को स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बतलाया है। भगवान महावीर खुद बहुत बड़े दानी थे। बचपन से ही उन्हें दान से प्रेम था। किसी भी भूखे गरीब को देखते, तो उनकी आँखों में दया के आँसू उमड़ने लगते। जो भी पास में होता, गरीबों को दान कर देते । भगवान् महावीर राजकुमार थे। उन्हें किसी भी भौतिक सुख-साधन की कमी नहीं थी। वे प्रायः अपना भोजन साथियों को बाँट कर ही खाते थे। राजपाट त्यागकर जब मुनि होने लगे, तब भी भगवान महावीर ने एक वर्ष तक निरन्तर दान दिया। जो कुछ भी अपने पास धन का संग्रह था, वह सब - का - सब जनसेवा में अर्पित कर दिया। उन दिनों भगवान् महावीर एक वर्ष तक जैनत्व की झाँकी (60) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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