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जैन आत्म-श्रद्धा की नौका पर चढ़ कर, निर्भय और निर्द्वन्द्व भाव से जीवन-यात्रा करता है। विवेक के उज्जवल झंडे के नीचे, अपने व्यक्तित्व को चमकाता है। राग और द्वेष से रहित, वासनाओं का विजेता 'अरिहँत' उसका उपास्य है। हिमगिरि के समान अचल एवं अडिग जैन, दुनिया के प्रवाह में स्वयं न बह कर, दुनिया को ही अपनी ओर आकृष्ट करता है। मानव-संसार को अपने उज्ज्वल चरित्र से प्रभावित करता है। अतएव एक दिन देवगण भी, सच्चे जैन की चरण-सेवा में, सादर सभक्ति मस्तक झुका देते हैं ?
जैन बनना, साधक के लिए, परम सौभाग्य की बात है ! जैनत्व का विकास करना, इसी में मानव-जीवन का परम कल्याण है।
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Jain Ecei
जोनल्य की जाँकी (58)
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