SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर की परिभाषा और उनके स्वरुप के सम्बन्ध में पिछले अध्यायों में आप पढ़ चुके हैं। इस अध्याय में पढ़िए वर्तमान कालचक्र के चौबीस तीर्थंकरों का संक्षिप्त जीवन-परिचय। - चौबीसतीर्थकर आध्यात्मिक विकास के उच्च शिखर पर पहुँचने वाले महापुरुषों को जैन धर्म में तीर्थंकर कहा जाता है। तीर्थंकर देव राग, द्वेष, भय, साश्चर्य, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह चिन्ता आदि विकारों से सर्वथा रहित होते हैं केवलज्ञान और केवलदर्शनं से युक्त होते हैं। स्वर्ग के देवता भी उनके चरण कमलों में श्रद्धा-भक्ति के साथ वन्दना करते हैं। तीर्थंकरों का जीवन बहुत ही महान् होता है। उनके समवसरण (धर्म-सभा) में अहिंसा का अखण्ड राज्य होता है। सिंह और मृग आदि विरोधी प्राणी भी एक साथ प्रेम से बैठे रहते हैं। न सिंह में मारक-वृत्ति रहती है और न मृग में भय-वृत्ति । अहिंसा के देवता के सामने हिंसा का अस्तित्व भला कैसे रह सकता है ? - आपको ये बातें शायद असम्भव जैसी मालूम होती हैं, परन्तु आध्यात्मिक शक्ति के सामने कुछ भी कहना असम्भव नहीं है। आजकल भौतिक विद्या के चमत्कार ही कुछ कम आश्चर्यजनक हैं क्या ? तब आध्यात्मिक विद्या के चमत्कारों का तो कहना ही क्या? उनके आध्यात्मिक वैभव की तुलना अन्य किसी से की ही नहीं जा सकती। वर्तमान काल-प्रवाह में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में चौबीसों ही तीर्थकरों का विस्तृत जीवन-चरित्र मिलता है। परन्तु - - - - चौबीस तीर्थकर (47) www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy